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के सामने कभी नहीं होते थे। अकस्मात् भाग्य ने पलटा खाया। कहाँ तो राज्य में उनकी इतनी चलती थी, उनकी मंत्रणा के अनुसार कार्य होते थे कहाँ वे आज फिर डरे छिपे अपराधियों की दशा को प्राप्त हो गए । स्थानीश्वर के सम्राट प्रभाकरवर्द्ध ने कठिन रोग से पीड़ित चारपाई पर पड़े थे। उनके जेठे पुत्र पंचनद में हूणों का आक्रमण रोक रहे थे । शशांक के सिंहासन प्राप्त करने के दूसरे ही दिन बुद्धघोष और बंधुगुप्त भागने की सलाह कर रहे थे। बंधुगुप्त ने पूछा “अब क्या उपाय है ?"

बुद्ध०-बस एक भगवान् शाक्यसिंह का भरोसा है-

ये धर्मों हेतुप्रभवा

हेतुस्तेषां तथागतोऽवदत् ।

तषांच यो निरोध

एवं वादी महाश्रमण: ॥

बंधु०-इस समय अपना सूत्रपिटक रखो। धर्म कर्म की बात इस समय नहीं सुहाती है।

बुद्ध०-संघस्थविर ! तुम सदा धर्मशून्य रहे। अब तो त्रिरत्न का आश्रय ग्रहण करो।

बंधु०-बाप रे बाप! त्रिरत्न का आश्रय तो इतने दिनों से लिए हूँ। त्रिरत्न क्या मुझे मशोधवल के हाथ से बचा लेगा ?

बुद्ध०-संघस्थविर ! ऐहिक बातों को छोड़ परमार्थ की चिंता करो।

बंधु०-भाई ? मुझसे तो अभी ऐहिक नहीं छोड़ा जाता । यह बताओ कि अब किया क्या जाय ।

बुद्ध-शुक्रसेन कहाँ होगा, कुछ कह सकते हो ।

बंधु -इधर तो उसका कुछ भी पता न लगा। उसीने तो सब चौपट किया। वह न होता तो क्या-शशांक कभी बचता ? उसकी