मारो । दारुण यंत्रणा से मुझे मुक्त करो। नरसिंह ! तुम मेरे वाल्यसखा हो । इस समय मित्र का कार्य करो। अब इस वेदना का भार हृदय नहीं सह सकता । तलवार खींचों, मेरा हृदय विदीर्ण करो। उसे ढूँढ़कर कहीं न पाया, वह अब नहीं है, पर मैं जीता हूँ, सिंहासन पर बैठा राज्य का स्वांग भरता हूँ । पर भीतर गहरी ज्वाला है, असह्य यंत्रणा है। सच कहता हूँ, असह्य और अपार ज्वाला है। हृदय जल रहा है, कुछ दिखाई नहीं पड़ता है"।
शशांक बैठने लगे, अनंतवर्मा दौड़कर न थाम लेते तो वे भूमि पर गिर पड़ते। नरसिंह पत्थर की अचल मूर्ति के समान खड़े रहे । आधा दंड इसी दशा में बीत गया। उसके पीछे नरसिंह ने धीरे से पुकारा "शशांक !"
"क्या है ?
“युवराज ! तुम अब महाराजाधिराज हो, अपना,, राजपाट भोगो। नरसिंह के लिए तो अब संसार सूना है । पितृहीना बालिका को लेकर मंडला छोड़कर तुम्हारे पिता के यहाँ आश्रय लिया था। सोचा था कि कभी दिन फिरेंगे और वह राजराजेश्वरी होगी तब सब को लेकर मंडला जाऊँगा । पर वह चल बसी । उसे छोड़ मेरा कहीं कोई नहीं था। मेरी वह छोटी बहिन अब नहीं है। अब मंडला में नरसिंह के लिए स्थान नहीं है। सिंहदत्त का दुर्ग अब तक्षदत्त के पुत्र के योग्य नहीं है । अब मुझे मंडला न चाहिए । शशांक ! अब मैं विदा चाहता हूँ, अब इस पाटलिपुत्र में एक क्षण नहीं रह सकता। यह विशाल नगर, यह राजप्रासाद मुझे चित्रामय दिखाई पड़ता है। यहाँ अब और नहीं ठहर सकता। तुम्हारे कार्य के लिए मैं अपना जीवन दे चुका हूँ, जब कभी कोई संकट का समय आएगा तब नरसिंह को अपने पास पाओगे।