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रहा है, बस यही बात मेरे मन में नाच रही थी। धीरे धीरे संसार मेरे सामने से हट सा गया, मुझे कुछ सुध बुध न रह गई । उसके पीछे अंधकार छा गया, क्या क्या हुआ मैं नहीं जानता ।"

"जब चेत हुआ तब देखा कि रात का सन्नाटा छाया हुआ है । उत्सव का कोलाहल धीमा पड़ गया है। विवाह उस समय हो चुका था । तब मेरे जी में आया कि एक बार जाकर चित्रा को देख आऊँ-बस एक ही बार-फिर उसके पीछे जल के बुलबुले के समान संसार-सागर में विलीन हो जाऊँ । माधव सुख से राज्य करें, चित्रा के सुख के विचार से मैं माधव का कंटक न रहूँगा”।

"जाकर देखा था ? उसने क्या कहा ?"

नरसिंह की आँखों में आँसू नहीं थे। उनका स्वर बादल की गरज की तरह गंभीर हो गया था। शशांक हवाके झोंकों से हिलते हुए पद्मपत्र के समान काँप रहे थे। शशांक कहने लगे "वह बार बार यही कहती थी कि, युवराज, क्षमा करो, मैंने अपनी इच्छा से विवाह नहीं किया है। जब अंत में वह मेरा पैर पकड़ने चलो तब मैंने उसे दुतकार दिया । मैं समझा कि अब वह मेरो चित्रा नहीं है, वह माधवगुप्त की पत्नी है । नरसिंह ! चित्रा मेरे छोटे भाई की स्त्री थी ! वह बार बार मुझसे क्षमा माँगती थी और मैं उसकी हँसी करता था, उसपर व्यंग्य छोड़ता था। वह बार बार मेरा पैर पकड़ने दौड़ती थी, क्षमा चाहती थी। पर मैं क्षमा क्या करता ? शास्त्र के दृढ़ बंधन ने उसे माधव के साथ बाँध दिया था, उसे छू जाना तक मेरे लिये पाप था। मेरे और उसके बीच शास्त्र और लोकाचार का भारी व्यवधान आ पड़ा था। उसे अधिक दुखी करना ठीक न समझ मैं चट लौट पड़ा । चित्रा से सब दिन के लिए मैं विदा हुआ। दो पैर भी आगे न रखे थे कि किसी भारो वस्तु के जल में गिरने का शब्द कान में पड़ा। उलटकर देखा तो चित्रा कहीं नहीं है । नरसिंह ! चित्रा की हत्या ने ही की है, मुझे

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