उनके पीछे वसुमित्र, माधववर्मा और अनंतवा बैठे हैं। वे भी
उदास और खिन्न हैं। चित्रसारी के द्वार पर महाप्रतीहार विनयसेन
दंड पर भार दिए खड़े हैं। एक दंडधर ने आकर उनके कान में धीरे से न जाने क्या कहा । विनयसेन घबराए हुए घर के भीतर गए। शशांक उसी प्रकार गहरी चिता में डूबे थे, विनयसेन पर उनकी दृष्टि न पड़ा । महाप्रतीहार सहमते सहमते बोले "महाराजाधिराज ! नरसिंहदत्त आए है" । शशंक नरसिंह का नाम सुनते ही चौंककर बोल उठे "क्या कहा ? नरसिंह आए है । अच्छी बात है, मैं उन्हीं का आसरा देख रहा था। उन्हें यहीं ले आओ”। महाप्रतीहार अभिवादन करके चले गए।
पीछे से वसुमित्र ने उठकर कहा “महाराजाधिराज ! महानायक नरसिंहदत्त ने चित्रादेवी की मृत्यु का समाचार अवश्य पाया होगा। उनसे मिलने पर महाराज को और दुःख होगा"। वसुमित्र की बात काटकर शशांक ने कहा "नहीं, वसुमित्र, नरसिंह को यहीं आने दो। चित्रा अब नहीं है यह बात वे अवश्य सुन चुके होंगे। एक प्रकार से चित्रा की मृत्यु का कारण मैं ही हूँ। हृदय की भरी हुई वेदना से उन्हें जो कुछ कहना हो कह डालें । इससे मेरा जी बहुत कुछ हलका होगा।" वसुमित्र चुप होकर अपने आसन पर जा बैठे। अनंतवर्मा उठकर द्वार के पास जा खड़े हुए ।
थोड़ी ही देर में महाप्रतीहार विनयसेन नरसिंहदत्त को लेकर लौट
आए। नरसिंहदत्त ने अपने शरीर पर से वर्म तक न उतारा था।
उनपर धूल पड़ी हुई थी, बाल भी बिखरे हुए थे। उन्हें आने देख
शशांक उठ खड़े हुए । दूर ही से नरसिंहदत्त चिल्ला उठे “युवराज- (चित्रा-युवराज-"। घर के भीतर आने पर सम्राट को देख वे बोले “युवराज !-चित्रा-क्या सचमुच-?' शशांक कुछ भी विचलित न होकर धीरे से बोले "सचमुच, नरसिंह ! चित्रा नहीं है" । हाँफते हाँफते नरसिंह ने कहा "तो फिर सचमुच-युवराज -तुमने-"। आगे और