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धारा बह रही थी। लल्ल ने रुक रुककर कहा “तुम-भैया-तुम-शशांक !” सम्राट ने दौड़कर वृद्ध को हृदय से लगा लिया । वृद्ध अपनी सूखी हुई बाहों को सम्राट के गले में डाल बोला “भैया ! तुम सचमुच आ गए । महाराजाधिराज कह गए थे कि शशांक लौटेंगे, लौटेंगे। इसीसे मैं अब तक बचा था, नहीं तो कब का न अपने महाराज के पास पहुँच गया होता" । आँसुओं से सम्राट की आँखों के सामने धुध सा छा गया, उनका गला भर आया, उनके मुँह से केवल इतना ही निकल सका "दादा-"। जनसमूह बार बार जयध्वनि करने लगा।

सम्राट ने वृद्ध को वेदी के ऊपर बिठाया, वह वहाँ किसी प्रकार बैठता नहीं था । वह लाठी टेककर उठा और कहने लगा “भैया ! तुम महाराज बनकर सिंहासन पर बैठो, मैं आँख भर देख लूँ। शशांक सिंहासन पर बैठ गए। उन्हें देख कर वृद्ध बोला “भैया ! एक बार अपना पूर्णरूप दिखलाओ-छत्र, चँवर, दंड | विनयसेन ने गरुड़ध्वज लाकर शशांक के हाथ में दे दिया। यशोधवलदेव की आज्ञा से माधव वर्मा छत्र लेकर सिंहासन के पास खड़े हुए। रामगुप्त के दोनों पुत्र चँवर लेकर ढारने लगे। यह दृश्य देख वृद्ध की आँखें दमक उठी। उसने खड्ग के स्थान पर अपनी लाठी को ही मस्तक से लगाकर सामरिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया । इसके पीछे वह थककर गिर पड़ा। उसकी यह अवस्था देख सम्राट् झट सिंहासन से उतरकर उसके पास आए । वृद्ध शशांक की गोद में सिर डाले पड़ा रहा । थोड़ी देर में वह बोला “भैया ! एक बार और, एक बार और तो पुकारो"। शशांक वृद्ध के शरीर पर हाथ फेर बोले "दादा । दादा ! क्या है ?" वृद्ध हृषीकेशशमा आसन से उठकर ऊँचे स्वर से बोले “है क्या, महाराज ? लल्ल अब चले । बैकुंठ में महाराजाधिराज महासेनगुप्त की सेवा के लिए चले। अनाथों के नाय, दुष्टों के दपहारी, मधुसूदन ! मूढ़ जीव को