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पिताजी नहीं हैं, फिर भी दौड़ा दौड़ा मैं पाटलिपुत्र आया । क्योंकि जानती हो, चित्रा ! मन में बड़ी भारी आशा लिए हुए था कि तुम्हें देखू गा तब कितना सुखी हूँगा। सोचता था कि तुम वैसे ही दौड़ी दौड़ी मेरे पास आमोगी, तुम्हारी हँसी से संसार खिल उठेगा, तुम्हें लेकर मैं अपना सब दुःख शोक भूल जाऊँगा। देखो चित्रा! इस चाँदनी में बालू का मैदान कैसा सुंदर लगता है ! इसमें तुम्हारे साथ कितनी बार खेलने निकला हूँ-अब मैं तुम्हें खेलते नहीं देखू गा। चित्रा ! देखो, वही तुम्हारी फुलवारी है। तुम्हारी समझकर उसकी मैं कितनी सेवा, कितना यत्न करता था। चित्रा ! उस दिन की बात का स्मरण है जिस दिन लतिका पहले पहल आई थी। उसे फूल तोड़कर दिया था इसपर तुम कितनी रूठी थीं !"

"आज आनंद के दिन मैं भी थोड़ा आनंद करने आ गया, चित्रा ! अब और तुम्हारा सिर न दुखाऊंगा। बात देकर गया था, वही पूरी करने आ गया । अच्छा, अब जाओ । शशांक को भूल जाओ, वाल्यकाल की स्मृति दूर करो, आशीर्वाद करता हूँ"।

"युवराज !"

"चित्रा!"

"और एक बार पुकारो” ।

"क्या कह कर पुकारूँ, चित्रा ?"

"जो कहकर पुकारा करते थे।

"चित्रा, चित्रे, चित्री चित्रिता, चिती। अब और माया न बढ़ाऊँगा, तुम जाओ।"

"कहाँ जाऊँ, युवराज ?"

"अपनी सेज पर।

"यही तो मेरी सेज है"।