(११) थे ? कई बार मैंने तुम्हें समुद्रगुप्त का नाम लेते सुना।" वृद्ध के मुँह से एक बात न निकली । वह डरकर दीवार की ओर सरक गया। आगंतुक पुरुष के ऊँचे स्वर से बालक की नींद टूट गई। वह उसे सामने देख घबराकर उठ खड़ा हुआ । आगंतुक ने पूछा “शशांक ! तुम इस जीर्ण कोठरी में क्या करते थे ?" बालक सिर नीचा किए खड़ा रहा, कुछ उत्तर न दे सका। आगंतुक वृद्ध को ओर फिर कर बोला “यदु ! तुम अब बहुत बुड्ढे हुए, तुम्हारी बुद्धि सठिया गई है, तुम्हें उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रह गया है । तुम मेरे आदेश के विरुद्ध बेधड़क कुमार को बुरी शिक्षा दे रहे थे । यदि तुम्हें फिर कभी समुद्रगुप्त का नाम मुँह पर लाते सुना तो समझ रखना कि तुम्हारा सिर मुंडा कर तुम्हें नगर के बाहर कर दूंगा ।" फिर कुमार की ओर फिर कर कहा "देखो शशांक ! तुम कभी इधर अकेले मत आया करो । यदु बुड्ढा हुआ; अभी यहाँ कोई साँप निकले या बाघ आ जाय तो वह तुम्हें नहीं बचा सकता।" बालक के कानों-तक-पहुँचते हुए विशाल नेत्रों में जल भर आया । वह सिर नीचा किए चुपचाप कोठरी के बाहर निकला। कुछ दूर पर दूसरे घर में लल्ल खड़ा था। उसने दौड़कर कुमार को गोद में उठा लिया और बाहर ले चला। बालक वृद्ध सैनिक की गोद में मुँह छिपाए सिसकता जाता था । कोई दुःसंवाद पाकर सम्राट महासेन गुप्त व्यग्रता के साथ प्रासाद के आँगन में टहल रहे थे। धीरे धीरे वे नए प्रासाद से इस पुराने प्रासाद की ओर बढ़ आए। जिस कोठरी में यदुभट्ट रहता था उसकी ओर सम्राट क्या कोई राजपुरुष भी कभी नहीं जाता था। इसी से यदु- भट्ट निश्चित होकर कुमार को वह कथा सुना रहा था जिसका निषेध था । आगंतुक पुरुष सम्राट महासेनगुप्त थे, इसे बताने की अब आवश्यकता नहीं.। बहुत दिन हुए सम्राट ने मध्यदेश के एक ज्योतिषी के मुंह से सुना था कि शशांक के हाथ से ही गुप्त राज्य नष्ट होगा और पाटलिपुत्र
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