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परकोटे पर वर्मधारी योद्धा चिल्ला उठा "पहचान गया युवराज-महाराजाधिराज-"।

उस समय नरसिंहदच, वीरेंद्रसिंह, माधववर्मा और वसुमित्र आदि प्रधान सेनानायक आकर सम्राट के आस पास खड़े हो गए। तुरंत दुर्ग का द्वार खुल गया और सब लोग दुर्ग के भीतर गए। दिन भर दुर्ग के भीतर सेना जाती रही । संध्या होने के कुछ पहले विद्याधर-नंदी शेष सेना लेकर पहुँचे । वसुमित्र की बात ठीक निकली। पचास सहस्र से ऊपर सेना शशांक के साथ पाटलिपुत्र की ओर चली थी।

ज्योंही शशांक वंगदेश से बाहर हुए थे कि समतट से माधववर्मा आकर उनके साथ मिल गए थे। केवल तीन आदमी थोड़ी सी सेना लेकर भागीरथी के किनारे अब तक गए थे। इससे यह किसी ने न जाना कि शशांक पाटलिपुत्र लौट रहे हैं । भागीरथी के तट पर नरसिंह सेना लिए पड़े थे। उनके साथ इतनी सेना देखकर किसीको कुछआश्चय न हुआ। माधवगुप्त जब शपथ भंग करके सिंहासन पर बैठ गए तब साम्राज्य के सब प्रधान अमात्यों की श्रद्धा उनकी ओर से हट गई। उसके पीछे जब स्थाण्वो श्वर के अमात्य द्वारा वृद्ध महानायक यशोघवलदेव का बात बात में अपमान होने लगा तब अभिजातवर्ग के लोग अत्यंत क्षुब्ध हो उठे। भीतर भीतर अत्यंत विरक्त होने पर भी उन्होंने समुद्रगुप्त के वंशधर के प्रति स्पष्ट रूप से अपना असंतोष नहीं प्रकट किया।

महासेनगुप्त की मृत्यु एक वर्ष के भीतर ही साम्राज्य में बहुत कुछ उलटफेर हो गया है । गौड़ और वंग में शशांक के साथी विद्रोही हुए। अनंतवर्मा ने दक्षिण मगध को अपने हाथ में करके मंडलागढ़ पर अधिकार जमाया। प्रभाकरवर्द्धन के अनुरोध से माधवगुप्त ने चरणाद्रि और वाराणसी को अवंतिवर्मा को प्रदान किया । यशोधवल-