लगे । अत्याचार-पीड़ित प्रजा देश में धीरे धीरे लौटने लगी। मगध और तीरभुक्ति की भूभि फिर धनधान्य से पूर्ण हुई । अनेक-सामंतचक्र- सेवित महाराजाधिराज परमभट्टारक प्रथम चंगुगुप्त के बाहुबल से मगध की राजलक्ष्मी ने गुप्तवंश में आश्रय लिया ।" वृद्ध जब तक लड़ाई भिड़ाई की बात कहता रहा तब तक बालक एकाग्रचित्त होकर सुनता रहा । उसके उपरांत वृद्ध का कंठस्वर सुनते सुनते बालक को झपकी आने लगी। उसी सोड़ में पड़े हुए बिस्तर के ऊपर मगध का युवराज सो गया । श्रोता बहुत देर से सो रहा है वृद्ध को इसकी कुछ भी खबर नहीं थी । वह बिना रुके हुए अपनी कथा कहता जाता था- "पूरी आयु भोग कर यथासमय सम्राट प्रथम चंद्रगुप्त ने गंगालाम किया । कुल की रीति के अनुसार पट्टमहिषी लिच्छविराजकन्या कुमार- देवी स्वामी की सहगामिनी हुई । गुप्तवंश के मध्याह्नमार्चड परम प्रतापी महाराजाधिराज समुद्रगुप्त पाटलि पुत्र के सिंहासन पर सुशोभित हुए।" इतने में पास के घर से कोई आता दिखाई पड़ा। वृद्ध को उसके पैरों की कुछ भी आहट न मिली । वह व्यक्ति सहसा कोठरी में आ पहुँचा । देखने से ही वह कोई बहुत बड़ा आदमी जान पड़ता था । पहरावा तो उसका साधारण ही था -धोती के ऊपर महीन उत्तरीय अंग पर पड़ा था। किंतु पैर के जोड़े जड़ाऊ थे-उनमें रत्न और मोती टँके थे । घर में आकर उसने सोते हुए बालक और लेटे हुए वृद्ध को देखा । देखते ही उसने ऊँचे स्वर से भट्ट को पुकार कर कहा “यदुभट्ट ! पागलों की तरह क्या बक रहे हो ?" कंठस्वर सुनते ही वृद्ध चौंककर उठ खड़ा हुआ। आनेवाले को देखते ही वृद्ध का चेहरा सूख गया । वह ठक सा रह गया। आनेवाले पुरुष ने कहा “तुमसे मैं न जाने कितनी बार कह चुका कि कुमार के सामने चंद्रगुप्त और कुमारगुप्त का नाम न लिया करो। तुम अभी शशांक से क्या कह रहे
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