परिचय जयपुर राज्य के शेखावाटी प्रांत में खेतड़ी राज्य है। वहाँ के राजा श्रीअजीतसिंह जी बहादुर बड़े यशस्वी और विद्याप्रेमी हुए । गणितशास्त्र में उनकी अद्भुत गति थी। विज्ञान उन्हें बहुत प्रिय था। राजनीति में वह दक्ष और गुणग्राहिता में अद्वितीय थे। दर्शन और अध्यात्म की रुचि उन्हें इतनी थी कि विलायत जाले के पहले और पीछे स्वामी विवेकानंद उनके यहाँ महीनों रहे । स्वामी जी से घटों शास्त्र-चर्चा हुआ करती । राजपूताने में प्रसिद्ध है कि जयपुर के पुण्यश्लोक महाराज श्रीरामसिंह जी को छोड़कर ऐसी सर्वतोमुख प्रतिभा राजा श्रीअजीतसिंह जी ही में दिखाई दी। राजा श्रीअजीतसिंह जी की रानी आउआ (मारवाड़) की चापावत जी के गर्भ से तीन संतति हुई-दो कन्या, एक पुत्र । ज्येष्ठ कन्या श्रीमती सूर्यकुँवर थीं जिनका विवाह शाहपुरा के राजाधिराज सर श्री- नाहरसिंह जी के ज्येष्ठ चिरंजीव और युवराज राजकुमार श्रीउमेदसिंह जी से हुआ। छोटी कन्या श्रीमती चाँदकुवर का विवाह प्रतापगढ़ के महा. रावल साहब के युवराज महाराजकुमार श्रीमानसिंह जी से हुआ। तीसरी संतान जयसिंह जी थे जो राजा श्री अजीतसिंह जी और रानी चापावत जी के स्वर्गवास के पीछे खेतड़ी के राजा हुए। इन तीनों के शुभचिंतकों के लिये तीनों की स्मृति संचित-कर्मों के परिणाम से दुःखमय हुई। जयसिंह जी का स्वर्गवास सत्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और सारी प्रजा, सब शुभचिंतक, संबंधी, ति और गुरुजनों का हृदय आज भी उस आँच से जल ही रहा है । अश्वत्थामा के व्रण की तरह यह धाव कभी भरने का नहीं। ऐसे आशामय जीवन का ऐसा निराशात्मक परिणाम कदाचित् ही हुआ हो। श्रीसूर्यकुंवर बाई जी को एकमात्र भाई के वियोग की ऐसी ठेस लगी कि दो ही तीन वर्ष में उनका शरीरांत हुआ। श्रीचाँदकुँवर बाई जी को वैधव्य की विषम यातना भोगनी पड़ी और भ्रातृ-वियोग और पति-वियोग दोनों का सह्य
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