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(२८१) भव अब तक चुपचाप खड़ी थी। वह धीरे धीरे शशांक के पास आई और पूछने लगी “पागल ! तुम कौन हो?" "भव ! अब मैं पागल नहीं हूँ, अब मैं राजा हूँ" "तो क्या तुम चले जाओगे?" "हाँ! अभी तो देश को जाऊँगा"। "कब जाओगे?" "मैं समझता हूँ, कल ही। "हाँ ! आज न जाना, मैं तुम्हें आँख भर देखू गी। फिर तो तुम लौट कर आओगे नहीं" । भव डबडबाई हुई आँखें लिए झोपड़े से बाहर निकली। शशांक व्यथित हृदय से झोपड़े के सामने खड़े किए हुए डेरे में गए । दो पहर रात बीते शशांक नदीतट पर डेरे के बाहर निकल कर बैठे हैं। दूर पर आग जल रही है और डेरे के चारों ओर पहरेवाले खड़े हैं । अँधेरी रात में बैठे नए सम्राट चिंता कर रहे हैं । चिंता की अनेक बातें हैं। इन छ वर्षों के बीच संसार में कितने परिवर्तन हो गए हैं, उसकी दशा में कितना उलटफेर हो गया है। पिता नहीं हैं, माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर विराजमान हैं, स्थाण्वीश्वर के राजदूत ने आकर यशोधवलदेव को पदच्युत कर दिया है। थोड़ी देर पीछे ध्यान आया कि वसुमित्र कहते थे कि चित्रा का अभी विवाह नहीं हुआ है। देखते देखते मेघनाद के किनारे से एक व्यक्ति दौड़ा दौड़ा आया और शशांक के पैरों पर लोट कर कहने लगा "पागल ! मुझे क्षमा करो। मैंने सुना है कि तुम राजा हो, तुम्हारे हृदय में अपार दया है, तुम मेरा अपराध क्षमा करो" .