(२७७ ) "क्यों नहीं पहचानता ? तुम वसुमित्र हो । अनंत कहाँ है ?" "वे कुशल से हैं । श्रीमान् का जी कैसा है ?" "अच्छा है । युद्ध का क्या समाचार है ?" “युद्ध में महाराज की विजय हुई । श्रीमान् उठ सुकते हैं ?" शशांक के चारपाई पर से उठने के पहले ही आए हुए वृद्ध ने पास आकर पूछा “शशांक ! मुझे पहचानते हो ?" उचर मिला "पह- चानता हूँ। तुम वनाचार्य शकलेन हो ।” दीनानाथ ने आगे बढ़ कर कहा “इन्हीं ने तुमको-आपको-पाँच बरस हुए नदी से निकाल कर बचाया था ।” शशांक ने विस्मित होकर पूछा "वज्राचार्य ने ? पाँच बरस पहले ? वसुमित्र ! मैं कहाँ हूँ ?" "श्रीमान् इस समय वंग देश में हैं।" भव पत्थर की मूर्ति बनी चुपचाप यह सब अद्भुत लीला देख रही थी। शशांक को उठते देख वह भी उठ खड़ी हुई। शशांक झोपड़े के द्वार पर आकर खड़े हुए। बाहर और नदी के किनारे कई सहस्र सैनिक खड़े थे।. उनमें से प्रत्येक युवराज के अधीन किसी न किसी युद्ध में लड़ा था । जिन्होंने उन्हें देख पाया वे देखते ही जयध्वनि करने लगे। जो कुछ दूर पर खड़े थे और जो नाव पर थे वे भी जयध्वनि करने लगे । सहस्रों कंठों से एक स्वर से शब्द उठा "महाराजाधिराज की जय हो।" शशांक चौंक पड़े और घबराकर वसुमित्र से पूछने लगे "वसु- मित्र ! ये लोग मुझे महाराजाधिराज क्यों कह रहे हैं ?” वसु-प्रभु! थोड़ा स्थिर होकर विराजे, मैं सारी व्यवस्था कहता हूँ। शंशांक-नहीं वसुमित्र ! मैं शांत नहीं रह सकता । बताओ, क्या हुआ है।
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