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(२६८) . वृद्ध महानायक ने भिन्न-भिन्न स्थानों के नायकों के पास दूत भेजे, पर सब ने कहला भेजा कि हम लोग अपनी इच्छा से पाटलिपुत्र न जायँगे, बंदी बना कर भेजे जा सकते हैं । यशोधवलदेव बड़ी विपत्ति में पड़े । दूत बार-बार कहने लगा कि यदि विलंब होगा तो सम्राट से भेंट न होगी। कोई उपाय न देख यशोधवलदेव लौटने को तैयार हुए। सम्राट् को युवराज की मृत्यु का संवाद बहुत पहले मिल चुका था। जिस समय उन्होंने यह दारुण संवाद सुना था वे वज्राहत के समान मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े थे। तब से उन्हें किसी ने सभा में नहीं देखा । वे अंतःपुर के बाहर न निकले । धीरे-धीरे जीवनी शक्ति वृद्ध के जीर्ण शरीर-पंजर से दूर होती गई। मगध साम्राज्य के अमात्यों ने समझ लिया कि सम्राट अब शीघ्र इस लोक से चला चाहते हैं । देखते-देखते पाँच बरस बीत गए । माधव गुप्त स्थाण्वीश्वर से लौट आए हैं । नारायण शर्मा ने कहा है कि नए युवराज (माधवगुप्त) प्रभा- करवर्द्धन और उनके दोनों पुत्रों के अत्यंत प्रिय पात्र हैं। चरणाद्रिगढ़ में सेना का रखना आवश्यक नहीं समझा गया इससे हरिगुप्त सेना सहित बुला लिए गए। यशोधवलदेव वंग देश में बैठे बैठे साम्राज्य का कार्य चला रहे थे । पाटलिपुत्र में हृषीकेश शर्मा, नारायण शर्मा और हरिगुप्त उनके आदेश के अनुसार काम करते थे । माधवगुप्त धीरे-धीरे बल और प्रभाव प्राप्त करते जाते थे। उनके व्यर्थ हस्तक्षेप करने से कभी-कभी बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती थी। यह सब सुन कर यशोधवलदेव बड़ी चिंता में दिन काटते थे। बुझता हुआ दीपक सहसा भभक उठा | मरने के पहले महासेनगुप्त को चैतन्य प्राप्त हुआ। उन्होंने यशोधवलदेव को देखना चाहा । पाँच बरस पर यशोधवल देव पाटलिपुत्र लौटे । महानायक वंगदेश पर विजय प्राप्त करके लौट रहे हैं यह सुनकर पाटलिपुत्रवासियों ने बड़े उल्लास