(२६४) "बहुत थोड़ी सी, सो भी एक छाया के समान । ऐसा जान पड़ता है कि मेरा कहीं कोई था, पर कहाँ यह नहीं ध्यान में आता"। "तुम यहाँ कैसे आए, कुछ जानते हो ?" "न"। "जानने की इच्छा होती है ?" "न, तुम गाओ"। "क्या गाऊँ ?" "वही चंदावाली गीत” । युवती गुनगुनाकर गाने लगी। शुक्ल पंचमी की धुंधली चाँदनी उस सघन कुंज के अंधकार को भेदने का निष्फल प्रयत्न कर रही थी पर मेघनाद के काले जल की तरंगों पर से पलटकर वह उस साँवली सलोनी युवती को विद्युल्लता सी झलका रही थी। धीवर कन्या का कंठ अत्यंत मधुर था । जो गीत वह गा रही थी बड़ा सुहावना था । युवक टकटकी बाँधे उसके मुँह की ओर ताक रहा था और मन ही मन एक अपूर्व सुख का अनुभव कर रहा था । अकस्मात् गाना बंद हो गया । युवती ने पूछा “तुम्हें चाँदनी अच्छी लगती है, पागल ?? "अच्छी लगती है। "तुम मुझे चाहते हो ?" "चाहता हूँ। "क्यों ?" "नहीं जानता, जिस दिन से तुम आई हो उसी दिन से चाहता हूँ"। धीवर की बेटी उसपर मर रही थी। उस असामान्य रूप लावण्य की दीप्ति पर वह पतंग की तरह गिरा चाहती थी। बूढ़े दीनानाथ ने
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