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ध्रुवस्वामिनी का उद्यान', 'समुद्रगुप्त का प्रासाद', 'गोविंदगुप्त का रंगभवन' इत्यादि नामों से प्रासाद के भिन्न भिन्न प्रांत नगरवासियों के बीच प्रसिद्ध थे । गुप्तसाम्राज्य के ध्वस्त होने पर यह विस्तीर्ण राजप्रा- साद भी खंडहर सा होने लगा। पिछले सम्राटों में उसे बनाए रखने की भी सामर्थ्य नहीं थी। दिनों के फेर से विस्तीर्ण सौधमाला गिर पड़कर रहने के योग्य नहीं रह गई थी। मगधराज के परिचारक और छोटे कर्मचारी इन पुराने घरों में रहते थे । लंबे चौड़े उद्यान और भारी भारी आँगन जंगल हो रहे थे । पाटलिपुत्रवासी रात को इन स्थानों में डर के मारे नहीं जाते थे। प्रासाद का यदि कोई भाग अच्छी दशा में था तो कुमारगुप्त का श्वेत पत्थरवाला भवन, जो सब के पीछे बनने के कारण जीर्ण नहीं हुआ था । उसी श्वेत प्रासाद में मगधेश्वर महासेन- गुप्त रहते थे । समुद्रगुप्त के लालपत्थरवाले विस्तृत प्रासाद में सम्राट की शरीररक्षक-सेना रहती थी। पुस्तक के आरंभ में पाठक ने इसी प्रासाद के एक भाग में कुमार शशांक और सेनापति लल को देखा था । वृद्ध भट्ट पुरानी कथा इस प्रकार कह रहा था-'इस सुंदर पाट- लिपुत्र नगर में शकराज निवास करते थे। प्राचीन मगध देश अधीन होकर उनके पैरों के नीचे पड़ा हुआ था । तीरभुक्ति के राजा पाटलिपुत्र में आकर उन्हें सिर झुकाते थे और सामान्य भूस्वामियों के समान प्रति वर्ष कर देते थे । वैशाली के प्राचीन लिच्छविराजवंश ने दुर्दशाग्रस्त होकर पाटलिपुत्र में आश्रय लिया था। उस प्रतापी वंश के लोग साधारण भूस्वामियों के समान शकराज की सेवा में दिन काटते थे। कुमार का मुँह लाल हो गया। क्रोधभरे शब्दो में बालक बोल उठा-"भट्ट ! क्या उस समय देश में मनुष्य नहीं थे ? सारे मगध और तीरभुक्ति के राजाओं ने शकों का आधिपत्य कैसे स्वीकार किया ?"