( २५६ ) नहीं सूझता था कि मैं क्या करने जा रहा हूँ, मेरी आँखों पर परदा पड़ गया था। पुत्रप्रेम में व्याकुल सम्राट ने तोरण तक आकर मेरे हाथ में कुमार को सौंपा था। बाई आँख का फरकना देख उन्होंने मुझसे कहा था कि युद्ध का परिणाम चाहे जो हो, शशांक को लौटा लाना । वे समझते थे कि मैं उनकी आँख की पुतली निकाले लिए जा रहा हूँ। मेरे निकट महासेनगुप्त सम्राट नहीं हैं, मगध के महाराजाधिराज नहीं हैं वाल्यबंधु हैं। पुत्रशोक में मैं उन्हें भूल गया था। फिर जब अपने पुत्र का शोक भूला तब उनके पुत्र की हत्या करने के लिए पाट- लिपुत्र आया। "शशांक की हत्या मैंने ही की । उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि यशोधवल के जीते जी मेरा एक बाल तक कोई बाँका नहीं कर सकता। शंकरनद के किनारे इसी विश्वास पर उन्होंने एक लाख सेना का सामना किया, वंग देश में मुट्ठी भर सैनिक लेकर विद्रोह दमन करने गए। वे जानते थे कि यशोधवल सौ कोस पर भी रहेगा तो भी किसी प्रकार की विपद आने पर झट से पहुँच कर मुझे अपनी गोद में ले लेगा। अब शशांक नहीं हैं। मैं उनकी रक्षा न कर सका। मैंने उन्हें युद्ध करने की शिक्षा तो दी, पर अपनी रक्षा करने की शिक्षा नहीं दी। "युद्ध समाप्त हो गया, पर उसके साथ ही युवराज शशांक भी..." काँपते-काँपते वृद्ध महानायक बालू पर बैठ गए। नायक और सामंत लोग उन्हें सँभालने के लिए आगे बढ़े, पर महानायक ने उन्हें रोक कर कहा “अभी मुझे ज्ञान है, जब मैं ज्ञान शून्य हो जाऊँगा तभी चुपचाप बैठू गा। कीर्तिधवल को मैंने, खोया, उसे सह लिया; शशांक को खोया है, इसे भी सहूँगा। तब फिर तीन दिन तक पड़ा मैं क्या सोचता रहा जानते हो ? पुत्रहीना माता से क्या कहूँगा ? वृद्ध महा-
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