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( २४८) चारों ओर घूम रही थी। परशु की तीक्ष्ण धार खाकर सैकड़ों विद्रोही काल के मुख में जा पड़े। वाणों से जर्जर होकर विद्याधरनंदी नाव पर मूछित पड़े थे। अनंतवा और दस नाविक युवराज की पृष्ठ- रक्षा पर थे। युवराज जिधर विद्रोहियों की नौका देखते उधर ही टूट पड़ते । वे या तो नाव सहित डुबा दिए जाते अथवा आत्म-समर्पण करते। इस प्रकार व्यूह भेद हो गया, शत्रुपक्ष का बेड़ा तितर बितर हो गया, बहुत सी नावें भाग खड़ी हुई । संध्या होते होते युद्ध प्रायः समाप्त हो चला । युवराज ने देखा कि एक स्थान पर विद्रोहियों की कई एक नावे इकट्ठी होकर युद्ध कर रही हैं और गौड़ीय नाविक उन्हें किसी प्रकार पराजित नहीं कर सकते हैं । युवराज ने तुरंत नाविकों को उधर बढ़ने की आज्ञा दी। उन्हें देख गौड़ीय नाविक दूने उत्साह से युद्ध करने लगे। एक के पीछे एक नावें डूबती जाती थीं, पर युवराज ने चकित होकर देखा कि बचे हुए शत्रु किसी प्रकार आत्मसमर्पण नहीं कर रहे हैं । युद्ध के कलकल, अस्त्रों की झनकार, और घायलों की पुकार के बीच युवराज ने सुना कि कोई चिल्लाकर कह रहा है "शक ! युवराज की नाव अब पास आ रही है"। युवराज ने भय और आश्चर्य से देखा कि नावों के जमघट के बीच एक छोटी सी नाव पर दो बौद्ध भिक्खु खड़े हैं। उनमें से एक को तो उन्होंने पहचाना । वह वज्राचार्य शुक्रसेना था । देखते देखते दूसरे भिक्खु ने एक शूल छोड़ा, जिसके लगते ही कुमार का एक नाविक नदी के जल में गिर पड़ा । पीछे से अनंतवर्मा ने चिल्लाकर कहा “सावधान !" उनकी बात पर कुछ ध्यान न देकर युवराज ने अपनी नाव बढ़ाने की आज्ञा दी । उन्होंने नाव पर से देखा कि दूसरे भिक्खु ने उनपर ताककर शूल फेंका । उन्होंने अपने वर्म को सामने किया पर शूल उन्हें छू तक न गया, नाव से दस हाथ दूर पानी में जा पड़ा ।