( २४७ ) किया कि पिछली रात को शत्रुसेना पर छापा मारा जाय क्योंकि जब तक किसी उपाय से शत्रुव्यूह का भेद न किया जायगा तब तक लौटना नहीं हो सकता। सुनसान मैदान में जैसे मरते हुए पशु को देख दूर दूर से गिद्धों का झुड आकर उसके मरने की प्रतीक्षा में चारों ओर घेरकर बैठता है उसी प्रकार विद्रोही सेना युवराज को चारों ओर से घेरकर आसरा देख रही थी। क्षण क्षण पर उसकी संख्या बढ़ती जाती थी। गाँव गाँव से छोटी बड़ी नावों पर विद्रोहियों का दल शत्रु की समाप्ति करने के उल्लास में उमड़ा चला आता था। विलंब करना अच्छा न समझ युवराज ने सबेरा होते होते उनपर धावा कर दिया, पर उद्देश्य सफल न हुआ-शत्रुव्यूह का भेद न हो सका । तीसरा पहर होते होते तट पर सेना इकट्ठी करके युवराज ने सबसे विदा ली और कहा "यदि शत्रुव्यूह का भेद हो गया तब तो फिर देखादेखी होगी, नहीं तो नहीं। प्रत्येक नाव शत्रुव्यूह भेदकर निकलने का प्रयत्न करे, कोई किसीका आसरा न देखे” युवराज के बहुत निषेध करने पर भी अनंतवर्मा और विद्याधरनंदी उनकी नाव पर हो रहे । बीस रणदक्ष नाविक नौका लेकर चले । बड़े प्रचंड वेग से बीसों नावों ने शत्रुव्यूह पर धावा किया । उस वेग को न सँभाल सकने के कारण विद्रोहियों का नौकादल पीछे ईटा, पर व्यूहभेद न हुआ। युवराज की आज्ञा से नौकादल लौट आया। सुशिक्षित अश्वा- रोहियों के समान मुट्ठी भर मागधसेना ने फिर शत्रुव्यूह पर आक्रमण किया |.सब के आगे युवराज की नाव थी जिस पर खड़े होकर युवराज हाथ में परशु लिए युद्ध कर रहे थे। इस बार व्यूहभेद हुआ। प्रवल वेग न सह सकने के कारण अशिक्षित ग्रामवासी अपनी अपनी नावे लेकर भाग खड़े हुए । बिजली की तरह युवराज की नाव शत्रुव्यूह के
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