( २३६ ) "जाने या न जाने । तू बार-बार यह सब बकती है मुझे बड़ी लाज आती है।" "मन की बात खोल कर कहने ही में इतना पाप लग गया । तुम्हारी बात तो अब घर-घर फैल गई है। मैं तुम्हें एक बड़ा अच्छा तमाशा देखने के लिए बुलाने आई थी, पर तुम्हारी छबि देख कर सब कुछ भूल गई । क्या कहें, इस समय सेठ का लड़का न जाने कहाँ है । वेचारा कहीं शिविर में पड़ा होगा !" तरला की बात पर यूथिका को आँखें भर आई, पर वह अपनी अवस्था छिपाने के लिए बोली "क्या दिखाएगी? बोल" तरला ने कहा “जल्दी आओ । श्यामा मंदिर में एक और कोई तुम्हारे ही समान पूजा करने बैठा है ।” दोनों फुलवारी के बाहर निकलीं । गंगा द्वार पर भागीरथी के किनारे श्यामा देवी का मंदिर था । पत्थर के पुराने मंदिर के भीतर पुजारी बेठा पूजा कर रहा है। बाहर महादेवी हाथ जोड़े खड़ी हैं। मंदिर के द्वार के सामने चित्र-विचित्र खंभों का मंडप है जिसमें पट्ट वस्त्र धारण किए कई युवती और किशोरी स्त्रियाँ खड़ी हैं। मंडप के एक कोने में एक युवती बैठी देवी फूल में लाल चंदन लगा-लगा कर एकाग्र चित्त से पूजा कर रही थी। उसके सामने जया के फूलों का ढेर लगा हुआ था । यूथिका और तरला ने श्यामा मंदिर के आँगन में आकर उसको देखा। दोनों धीरे-धीरे दबे पाँव जाकर उसके पीछे खड़ी हो गई। युवती उस समय पूजा समाप्त करके हाथ जोड़ कर रही थी "हे देवि! कुमार कुशलक्षेम से लौट आएँगे तो मैं अपना रक्त निकालकर तुम्हें चढ़ाऊँगी । यही माँगती हूँ कि कुमार कुशल मंगल से विजयो होकर लौटें और उनके साथ भैया, अनंतवर्मा, माधववर्मा, यशोधवलदेव और वीरेंद्रसिंह सबके सब भले चंगे लौटें । कोई मरे न, यदि किसी का मरना आवश्यक ही हो तो मैं तुम्हारे चरणों में अपने मना
पृष्ठ:शशांक.djvu/२५७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।