( २३८) और नैवेद्य विधिपूर्वक चढ़ाकर सुंदरी घुटना टेक और हाथ जोड़ मनाने लगी- "भगवन् ! युद्ध में जय प्राप्त हो । महानायक कुशलपूर्वक लौट आएँ, युवराज शशांक युद्ध में विजय प्राप्त करके कुशल मंगल से राजधानी में आएँ, और-और-" पीछे से न जाने कौन बोल उठा “और सेठ वसुमित्र कुशल मंगल से पूर्ण यौवन सहित आकर यूथिका को गले लगाएँ । कैसी कही ? न कहोगी। युवती ने चकपकाकर पीछे ताका, देखा तरला खड़ी है। वह कब धीरे धीरे दबे पाँव आई युवती को पता न लगा। उसकी बात सुनकर उसके मुँह पर लाली झलक पड़ी। देखते देखते गोल कपोलों पर की ललाई सारे शरीर में दौड़ गई । छबि देखकर तरला मोहित हो गई। वह बोल उठी "हाय ! हाय ! इस समय नायक पास नहीं है। उसके भाग्य में ही नहीं कि यह अपूर्व शोभा देखे"। युवती ने कुंदकली से दांतों से लाल लाल ओठ दबाकर सा ताना और फिर महादेव को प्रणाम किया । तरला फिर बोल उठी "हे महादेव बाबा ! मेरे मन में जो है उसे लाज के मारे कह नहीं सकती हूँ। मेरे हृदय का रत्न कुशल मंगल से लौट आए तो हम दोनों एक साथ कृष्ण चतुर्दशी को विधिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे।" यूथिका ने महादेव को प्रणाम कर तरला की ओर ताक कर कहा तू मर भी।” तरला हँसते-हँसते बोली “तुम्हारा शाप यदि लगता तो मैं नित्य न जाने कितनी बार मरती । पर मैं मर जाऊँगी तो नायक पकड़ कर कौन लाएगा?" "देख तरला ! तू अब बहुत बढ़ती चली जा रही है। भला, महा- देवी सुनेंगी तो मन में क्या कहेंगी?" "महादेवी मानो तुम्हारी सब करतूत नहीं जानतीं ।” 66
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