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तक (२२६ ) हैं । नद का पाट उस स्थान पर चौड़ा था, पर गहराई अधिक नहीं जान पड़ती थी। उस पार के हरे-भरे मैदान में सेना का पड़ाव दिखाई पड़ता था। देखने से पचास सहस्र सेना का अनुमान होता था । युवराज के सेना-नायकों ने थकी-माँदी सेना को नदी तट पर एकत्र किया । भूख से व्याकुल और शीत से ठिठुरे हुए सैनिक घोड़ों पर से उतर युद्ध के लिए खड़े हुए। पर युद्ध करता कौन ? उस पार शत्रु के शिविर में तो कहीं कोई मनुष्य दिखाई ही नहीं पड़ता था। तीसरा पहर बीत जाने पर एक अश्वारोही ने आकर युवराज को संवाद दिया कि कई ग्रामीण उनसे मिलना चाहते हैं । युवराज ने उन्हें सामने लाने के लिए कहा। सैनिक तुरंत कई नाटे और चिपटी-नाक वाले किसानों को सामने लाए। उन्होंने हाथ जोड़ कर निवेदन किया "हजारों घोड़े खेती का सत्यानाश कर रहे हैं। यदि दया करके उन्हें खेतों से हटाने की आज्ञा दी जाय तो हम लोग सैनिकों और घोड़ों के लिए पूरा-पूरा भोजन और दाना-चारा अभी पहुँचा जायँ ।" युवराज की आज्ञा से भूखे घोड़े खेतों से हटा लिए गए। ग्रामवासी अनेक आशीर्वाद देते हुए बहुत सा अन्न और चारा लेकर आए । आहार मिलने से घोड़ों और सैनिकों की रक्षा हुई। संध्या होते-होते नद के दोनों तटों पर सहस्रों स्थानों पर अलाव जले । पानी लगातार बरस रहा था । उस दिन भी युद्ध न हुआ। सैनिकों ने किनारे के जंगल से लकड़ी ला-ला कर बहुत से झोपड़े खड़े किए। दो पहर रात गए युवराज और अनंतवर्मा डेरे से निकल कर लकड़ी के घर में गए। आकाश में अब तक बादल घेरे वायु का वेग बढ़ गया था, पर पानी बहुत कुछ थम गया था। युव- राज ने पूछा “अनंत ! जान पड़ता है, कि नद बढ़ आया है ।" अनंत वर्मा देख कर आए और कहने लगे, “हाँ, बहुत बढ़ आया है।" युवराज बोले “अच्छी बात है, तुम यहाँ आओ।".