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( २२७) की सेना नद उतरने की चेष्टा कर रही है, और युद्धविद्याविशारद भास्करवा अपनी सेना को बहुत से खंडों में बाँटकर एक ही समय में अनेक स्थानों से उसे उतारने का यत्न करेंगे। युवराज और वीरेंद्र- सिंह चिंता में पड़ गए । बात यह कि नरसिंहदत्त सेना लेकर अब तक न पहुँच सके थे। दोनों ने लेखा लगाकर देखा कि घायल और निकम्मी सेना को छोड़ साढ़े सात हजार अश्वारोही बच रहे हैं । इस सेना को दो भागों में बाँटकर युवराज और वीरेंद्रसिंह कामरूप की एक लाख सेना को रोकने के लिये तैयार हुए । वीरेंद्रसिंह और गौड़ीय सामंतों ने बहुतेरा समझाया पर युवराज शशांक ने युद्धक्षेत्र से हटना स्वीकार न किया। वीरेंद्रसिंह आदि ने समझ लिया कि मुट्ठी भर सैनिक लेकर कामरूप की इतनी बड़ी सेना का सामना करना पागलपन है और इसका परिणाम मृत्यु है। उन लोगों ने यशोधवलदेव के पास एक अश्वारोही और नरसिंहदत्त के पास एक सामंत को चटपट भेजा । नरसिंहदत्त पदातिक सेना लिए अभी चालीस कोस पर थे और यशोधवलदेव का शिविर मेघनाद के तट पर था। शंकरनद से शिविर एक महीने का मार्ग था सामंतों ने जब देखा कि युवराज किसी प्रकार युद्धक्षेत्रसे न हटेंगे तब वे भी उनके साथ मरने के लिए प्रस्तुत हुए । प्रधान-प्रधान सामंत, नायकों के हाथ में सैन्य परिचालन का भार देकर, युवराज के शरीर- रक्षी दले में जा मिले। सौ शरीर-रशियों के स्थान पर तीन सौ शरीर- रक्षी साथ लेकर युवराज शिविर से निकल पड़े। विदा होते समय आँख में आँसू भरे वीरेंद्र सिंह युवराज का हाथ थाम कर बोले “कुमार ! यदि लौट कर मुझे इस स्थान पर न देखना तो जान लेना कि वीरेंद्र सिंह जीता नहीं है। यदि कभी देश लौट कर जाना तो महानायक से कहना कि महेंद्र सिंह का पुत्र उनकी सेवा में जीवन देकर कृतार्थ हुआ। एक अश्वारोही भी प्राण रहते घाट पर से न हटेगा।"