(२२१) छोड़ते गए। गौड़ उस समय एक छोटा सा नगर था, एक प्रदेश मात्र की राजधानी था। नावों का बेड़ा जब गौड़ पहुँचा तब गौड़ीय महाकुमारामात्य ने बड़े समारोह के साथ युवराज की अभ्यर्थना की। घाट की नावों पर रंग विरंग की पताकाएँ फहरा रही थीं, नगर के मार्गों पर स्थान स्थान पर फूलपत्तों से सजे हुए तोरण बने थे। संध्या होते होते दीपमाला से गौड़ नगर जगमगा उठा। गौड़ की बहुत सी सुशिक्षित सेना आपसे आप साम्राज्य की सेना के साथ ली। समुद्रगुप्त के वंशधर स्वयं विजययात्रा के लिए निकले हैं यह सुन दल के दल गौड़ीय अमात्य अपनी-अपनी शरीररक्षी सेना लेकर गरुड़- ध्वज के नीचे आ जुटे । युवराज जिस समय गौड़देश से चले उस समय उनके साथ दो सहस्र के स्थान पर दस सहस्र अश्वारोही सेना हो गई। पौंड्रवर्द्धनभुक्ति की सीमा पार होने पर विद्रोही सामंतों का शासन आरंभ हुआ। निरीह प्रजा ने बड़े आनंद से सम्राट के पुत्र की अभ्य- र्थना की। पदातिक सेना गाँव पर गाँव अधिकार करती चली । दो एक स्थान पर कुछ भूस्वामियों ने मिट्टी के कोट के भीतर से साम्राज्य की सेना को रोकने का प्रयत्न किया, पर यशोधवल ने उनके गढ़ों पर अधिकार, करके उन्हें ऐसा कठोर दंड दिया कि अधिकांश महत्व और महत्तमाः अधीन होकर महानायक की शरण में आए। इस प्रकार मेघनाद के पश्चिम तट तक सारा प्रदेश अधिकार में भगया । पूस के अंत में मेघनाद तट पर सारी पदातिक, अश्वारोही और नौसेना इकट्ठी हुई । बहुदर्शी महानायक ने शरण में आए हुए सामंतों को फिर अपने अपने पदों पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने बड़ो प्रसन्नता से बहुत दिनों के
- शासनकर्ता की उपाधि ।
महत्तर = जमीदार। महत्तम = उच्च वर्ग के भूस्वामी, तअल्लुकेदार ।