नवाँ परिच्छेद विजययात्रा। आश्विन शुक्लपक्ष के प्रारंभ में महाधर्माध्यक्ष नारायण शर्मा ने कुमार माधवगुप्त को साथ लेकर स्थाण्वीश्वर की यात्रा को। चरणाद्रि से हरिगुप्त ने समाचार भेजा कि बिना युद्ध के ही दुर्ग पर अधिकार हो गया पर थानेश्वर की सेना अभी तक प्रतिष्ठानपुर में पड़ी हुई है। यशोधवलदेव निश्चिंत होकर वंगदेश की चढ़ाई की तैयारी करने लगे। हेमंत के अंत में पदातिक सेना और नावों का बेड़ा वंग की ओर चला । यह स्थिर हुआ कि पदातिक सेना चलकर गिरिसंकट पर अधिकार जमाए, युवराज शशांक और यशोधवलदेव अश्वारोही सेना लेकर यात्रा करें । उस काल में गौड़ या वंग में घुसने के लिए मंडला के संकीर्ण पहाड़ी पथ पर अधिकार करना आवश्यक था। हज़ार वर्ष पीछे बंगाल के अंतिम स्वाधीन नवाब क़ासिमअली खाँ इसी पहाड़ी प्रदेश में पराजित होकर, और अपना राजपाट खोकर भिखारी हुए थे। गुप्त सम्राटों के समय में जो अत्यंत विश्वासपात्र सेनापति होता था उसी के हाथ में मंडलादुर्ग का अधिकार दिया जाता था। नरसिंहदत्त के पूर्व पुरुषों के अधिकार में बहुत दिनों से यह दुर्ग चला आता था। उनके पिता तक्षदत्त की मृत्यु के पीछे जंगलियों ने मंडलादुर्ग पर अधि- कार कर लिया था। सम्राट ने एक दूसरे सेनापति को दुर्ग की रक्षा के लिए भेजा था, क्योंकि नरसिंहदत्त उस समय बहुत छोटे थे । नरसिंहदत्त ने यशोधवलदेव की आज्ञा लेकर पदातिक सेना के साथ
पृष्ठ:शशांक.djvu/२३७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।