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( २१७ ) अवश्य हम लोगों को हूँढ़ता हूँढ़ता अंतःपुर में जा पहुँचा । उसे रात को दिखाई नहीं पड़ता, वह निश्चय किसी के ऊपर जा गिरा। अब चटपट यहाँ से भागो"। तरला की बात पूरी भी न हो पाई थी कि यूथिका न जाने क्या कहकर मूञ्छित हो गई। यदि वसुमित्र उसे थाम न लेता तो वह गिर जाती । वसुमित्र ने पूछा “तरला, अब क्या किया जाय ?" तरला ने कहा "यूथिका को मैं थामे हूँ, आप चटपट दीवार पर चढ़ जाइए"। तरला ने अचेत यूथिका को थामा । वसुमित्र उछल- कर दीवार पर चढ़ गया और उसने यूथिका को ऊपर खींच लिया । तरला भी देखते देखते यूथिका को थामने के लिए दीवार पर जा पहुँची । वसुमित्र धीरे से उस पार उतर गया और उसने यूथिका को हाथों पर ले लिया । तरला नीचे उतर कहने लगी “भैया जी ! झट घोड़े पर चढ़ो और अपनी बहू जी को भी लेलो"। वसुमित्र घोड़े पर बैठा और उसने यूथिकाको गोद में ठहरा लिया । तरला बोली “अब चल दो, घर के सब लोग जाग पड़े हैं। सीधे महनायक की कोठरी में चले जाना, वहाँ सब प्रबंध पहले से है।। वसुमित्र कुछ आगा पीछा करने लगा और बोला “और तुम ?'। तरला ने कहा “मेरी चिंता न करो। यदि मैं भागना चाहूँ तो पाटलिपुत्र में अभी ऐसा कोई नहीं जन्मा है जो मुझे पकड़ ले।" वसुमित्र तीर की तरह घोड़ा छोड़कर देखते देखते अदृश्य हो गया। इधर बसंतू की माँ का चिल्लाना सुन घर और टोले के सब लोग जाग पड़े । यूथिका के पिता के आदमी दीया जलाकर चोर को हूँढ़ने लगे । तरला यह रंग ढंग देख धीरे से खिसक गई। सचमुच अँधेरे में देशानंद बसंतू की माँ के ऊपर जा गिरा था। बसंतू की माँ कोई ऐसी वैसी स्त्री तो थी नहीं। वह देशानंद को दोनों हाथों से कसकर पकड़े रही और 'चोर चोर' करके टोले भर का कान फोड़ती रही। घर के लोगों ने जागकर देखा कि सचमुच एक नया आदमी घर में