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( २१४) दो पहर रात बीते चंद्रोदय हुआ। चाँदनी धुंधली रहनेपर भी देशानंद की दृष्टि को बहुत कुछ सहारा था। तरला के आदेशानुसार वह उजाले से हट कर दीवार की छाया में छिप कर खड़ा हुआ । तरला फिर उसी प्रकार दीवार पर चढ़ कर बाहर फुलवारी में उतरी। धीरे-धीरे फुलवारी से निकल कर वह सेठ के घर से लगी हुई एक गली में गई। वहाँ अँधेरे में एक आदमी पहले से छिपा था, उसने पूछा "कौन, तरला ?" तरला बोली "हाँ, जल्दी आइए।" "घोड़ा लिए चलें?" "डर क्या है ?" "क्या हुआ ?" "अभी मैं भीतर नहीं जा सकी हूँ। सेठ ने फुलवारी के द्वार पर ताला लगा रखा है।" तरला फिर फुलवारी की ओर चली, वसुमित्र घोड़े पर पीछे-पीछे चला। दोनों रस्सी फंदे के सहारे दीवार लाँघ कर सेठ के घर में पहुँचे। वसुमित्र ने भी ताला खोलने का बहुत यत्न किया, पर वह न खुला। यह देख तरला बोली “तो फिर सेठ की बेटी को भी दीवार : लाँघनी पड़ेगी, अब और विलंब करना ठीक नहीं। रात बीत चली है। मैं अंतःपुर में जाने का एक और मार्ग जानती हूँ।" वसुमित्र ने उसकी बात मान ली । तरला ने देशानंद से कहा "देखो! बाबाजी ! तुम यहीं छिपे रहना, और किसी को आते देखना तो रस्सी की सीढ़ी हटा लेना।" देशानंद ने उत्तर दिया “तुम लोग बहुत देर न रात को भूत-प्रेत निकलते हैं, कहीं..." तरला ने हँसकर कहा-' T-"तुम्हें कोई भय नहीं है, मैं अभी लौटती हूँ।" दोनों घर के भीतर घुसे । चलते-चलते वसुमित्र ने पूछा “तरला ! तुम्हारे साथ वह कौन है ?" तरला-नहीं पहचाना? , लगाना।