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(२०३ ) पता न लगा। उसे न पाकर वह कुछ चिंता में पड़ गई क्योंकि समय बहुत कम रह गया था। दो-चार और कोठरियों में देख कर तरला प्रथम खंड वाले तोरण के बाहर निकल इधर-उधर ताकने लगी। उसने देखा कि खाँई के किनारे एक बड़े पीपल के नीचे देशानंद बैठा है। उसके सामने एक बड़ा सा दर्पण रखा है और वह अपने बाल सँवार प्रासाद में आने के पीछे तरला और देशानंद की देखा-देखी कभी नहीं हुई थी। तरला को देखने की सदा उत्कंठा बनी रहने पर भी देशानंद को यह भरोसा नहीं था कि कभी प्रासाद के अंतःपुर में जाने का अवसर मिलेगा। बहुत दिनों पर तरला को आते देख देशानंद आनंद के मारे आपे से बाहर हो गया। तरला ने उसका स्त्री वेश बना कर उसे मंदिर में बंद कर दिया था, उसके कारण उसका प्राण जाते-जाते बचा था, यशोधवलदेव यदि समय पर न पहुँच जाते तो भिक्खु लोग उसे सीधे यमराज के यहाँ पहुँचा देते, ये सब बातें क्षण भर में वृद्ध देशानंद भूल गया । तरला को देखते ही उसकी नस-नस फड़क उठी। उसे तनमन की सुध न रही। पहले तो वह समझा कि तरला किसी काम से प्रासाद के बाहर जा रही है, पर तरला को अपनी ओर आते देख उसका भ्रम दूर हो गया। अब तो उसे मानलीला सूझने लगी। वह समझ गया कि तरला उसी की खोज में निकली है। वृद्ध सिर नीचा करके अपने पके बालों को सँवारने में लग गया । तरला ने देशानंद के पास आकर साष्टांग दंडवत की और मुस- कराती हुई बोली "बाबाजी ! कैसे हैं ? दासी को पहचानते हैं ?" देशा- नंद ने.कोई उत्तर न दिया, मुँह फेर कर बैठ रहा । तरला समझ गई कि बाबाजी ने मान किया है, मान किसी प्रकार छुड़ाना होगा। वह हँसती हुई देशानंद के और पास जा बैठी। अब तो वृद्ध का चित्त डाँवाडोल हो गया, पर उसने अपना मुँह न फेरा । तरला ने देखा कि