(२०२) यशो-एक किसी और विश्वासी आदमी का साथ रहन अच्छा है। तरला-तो फिर किसको जाना होगा? यशो 0-तुम अपना किसी को ठीक कर लो। तरला-भला, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी ? यशोधवलदेव हँसते हँसते बोले "हूँढकर देखो, कोई न कोई मिल जायगा"। इतना कहकर वे कोठरी के भीतर चले गए। तरला मन ही मन सोचने लगी कि यह क्या पहेली है, मैं आदमी कहाँ पाऊँगी ? महानायक की बात का अभिप्राय न समझ वह ठगमारी सी खड़ी रही । अकस्मात् उसे आचार्य देशानंद का ध्यान आया । वह हँस पड़ी। जब से देशानंद संघाराम से छूट कर आया है तब से बरा- बर प्रासाद ही में रहता है। यशोधवलदेव ने उसे अभय दान देकर उसके निर्वाह का प्रबंध कर दिया है। देशानंद अपने प्राण के भय से प्रासाद के बाहर कभी पैर नहीं रखता और किसी.बौद्ध को देखते ही गाली देने लगता है। वह सदा अपने बनाव सिंगार में ही लगा रहता है। उसने सिर पर लंबे-लंबे केश रखे हैं। कई पत्तियों का लेप चढ़ा कर वह सिर, मूंछ और दाढ़ी के बाल रँगे रहता है। जब कोई उससे उसका परिचय पूछता है तब वह कहता है कि महानायक यशोधवल- देव ने मेरी वीरता देख मुझे अपना शरीर रक्षी बनाया है, इसी से मैं प्रासाद के बाहर नहीं जाता। जब महानायक वंग देश की चढ़ाई पर जायँगे तब मुझे भी जाना होगा । बहुत दिनों पर तरला को अपने पुराने सेवक का ध्यान आया। वह अपनी हँसी किसी प्रकार न रोक सकी । वह झट से यशोधवलदेव के वासस्थान से निकल तोरण की ओर चली। प्रासाद के दूसरे और तीसरे खंड को पार करती वह प्रथम खंड के तोरण पर पहुँची जहाँ प्रतीहारों और द्वारपालों का डेरा था । तरला ने कई कोठरियों में जा-जा कर देखा, पर देशानंद का कहीं
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