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( १९६) हुई और उसने यही निश्चय किया कि ऐसी-ऐसी बातें सुलझाना एक सामान्य दासी का काम नहीं, सिर खपाना व्यर्थ है। अपनी बुद्धि को धिक्कारती हुई वह महानायक के स्थान की ओर बढ़ी, पर दो ही चार कदम गई होगी कि उसने देखा कि द्वार पर सम्राट् , यशोधवलदेव, युवराज, कुमार माधवगुप्त और महामंत्री हृषीकेश शर्मा खड़े हैं । तरला उन्हें देख फिर एक खंभे की आड़ में छिप गई । सम्राट ने पूछा “तो तुम लोग कब जाना चाहते हो ?" यशोधवल देव बोले "काचिंक शुक्ला त्रयोदशी को ।" सम्राट-अच्छी बात है। माधव क्या तुम लोगों के पहले ही जायँगे ? मैं तो समझता हूँ कि जब तक चरणाद्रि से कोई संवाद न आ जाय तब तक माधव का प्रस्थान करना उचित नहीं है। यशो 10-महाराज! प्रभाकरवर्द्धन यदि खुल्लमखुल्ला लड़ाई ठान दें तो भी महादेवी के सांवत्सरिक श्राद्ध पर किसी सम्राट्वंशीय पुरुष को जाना ही होगा। मार्ग बहुत दिनों का है। कुमार माधवगुप्त इतनी लंबी यात्रा शीघ्र न कर सकेंगे, उन्हें थानेश्वर पहुँचने में ६-७ महीने लग जायँगे। इससे शीघ्र यात्रा करना ही उचित है। मैं चाहता हूँ वंगदेश की चढ़ाई पर जाने के पहले मैं कुमार को उधर भेज दूं। सम्राट ने लंबी साँस भरकर कहा “अच्छा, यही सही । का कोई दिन स्थिर किया है ?" यशोधवलदेवने उत्तर दिया "आश्विन के शुक्लपक्ष की किसी तिथि को जाना ठीक होगा"। हृषीकेश शर्मा कुछ न सुन सके थे। वे विनयसेन को पुकारकर पूछने लगे "कहो भाई !- क्या ठीक हुआ ?” विनयसेन के उत्तर देने के पूर्व ही यशोधवलदेव ने चिल्लाकर कहा "आश्विन शुक्ल पक्ष में कुमार माधव- गुप्त को थानेश्वर भेजना स्थिर किया है"। महामंत्रीजी हँसकर बोले "साधु ! साधु !'। यह सब हो चुकने पर सब लोग सम्राट को यात्रा