( १९५) मैं कन्यादान नहीं दे सकता। तरला-यह मैं सुन चुकी हूँ। यूथिका T-तब फिर क्या होगा? तरला-घबराओ न। यूथिका-तुझे पता नहीं है, पिता जी भीतर ही भीतर मेरे सर्वनाश का उपाय कर रहे हैं। वे मेरे विवाह की कई जगह बातचीत कर रहे हैं । यदि उन्होंने मेरा विवाह और कहीं कर दिया तो मैं प्राण दे दूंगी । अब फिर मैं उन्हें देख सकूँ गी या नहीं कह नहीं सकती । पर इतनी बात जाकर उनसे कह देना कि यह शरीर अब दूसरे का नहीं हो सकता, दूसरा इसे छूकर कलंकित नहीं कर सकता । प्राण रहते तो पिता जी इसे दूसरे को अर्पित नहीं कर सकते। एक बार उन्हें देखने की बड़ी इच्छा है । तरला! यदि मैं मर जाऊँ तो उनसे कहना कि तुम्हें देखने का अभिलाष हृदय में लिए ही यूथिका मर गई। चित्त के वेग से सेठ की कन्या का गला भर आया। तरला से भी कुछ कहते सुनते न बना । वह यूथिका का सिर अपनी गोद में लेकर उसके लंबे लंबे केशों पर अपना हाथ फेरने लगी । बहुत देर पीछे तरला के मुँह से शब्द निकला । उसने कहा "यह बात भी मैं सुन चुकी हूँ। इसके भीतर बंधुगुप्त का चक्र भी चल रहा है, इसका पता यशोधवलदेव को गुप्तचरों से लग चुका है। उन्होंने मुझे तुम्हारे पास भेजा है"। यूथिका ने सिर उठाकर कहा “मैं क्या कर सकती हूँ ?" -भाग सकती हो? यूथिका-किसके साथ ? बड़ा डर लगता है । तरला-डरो न, मेरे साथ नहीं भागना होगा, तुम्हारे साथ रास रचनेवाले ही तुम्हें आकर ले जायँगे । तस्ला-
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