(१६२) झाड़ लिए इतना कहकर वह स्त्री आगे बढ़ी। कुछ दूर जाकर वह एक अट्टालिका के भीतर घुसी, और दोनों दंडधरों को द्वार पर ठहरने के लिए कहती गई। घर के आँगन में एक दासी हाथ में खड़ी थी। वह स्त्री को भीतर आते देख पास आकर पूछने लगी बहू जी! कहाँ से आ रही हो ?" स्त्री ने हँसकर घूघट हटा दिया और कहा “अरे वाह, बसंतू की माँ! इतने ही दिनों में मनुष्य मनुष्य को भूल जाता है ? इस घर में कितने दिन एक साथ रही, तीन ही बरस में ऐसी भूल गई मानों कभी की जान पहचान ही नहीं" । दासी के हाथ से झाडू छूट पड़ा, वह चकपका कर आनेवाली स्त्री का मुँह ताकती रह गई, फिर बोली "अरे कौन, तरला ? पहचानें कैसे, भाई, तू जिस ठाट बाटसे आई है उसे देख तुझे कौन पहचान सकता है ?मैं तो समझी कि कोई सेठानी यहाँ मिलने के लिए आई है। तेरे संबंध में तो बड़ी बड़ी बातें यहाँ सुनने में आती हैं । तू इस समय बड़े लोगों में हो गई है, राजभवन की दासी हो गई है; तेरा इस समय क्या कहना है ! रूपयौवन का गर्व कहीं संमाता नहीं है । अब अपने पुराने मालिक का घर तेरे ध्यान में क्या आने लगा?" 2 तरला-बसंतू की माँ ! देखती हूँ कि झगड़ा करने की तेरी बान अब तक नहीं गईन अरे! तेरा रूप यौवन नहीं रहा तो क्या किसी का न रहे ? बसंतू की माँ-अरे बापरे बाप ! मुँह जली राज भवन में जाकर दासी क्या हुई है कि धरती पर पाँव ही नहीं पड़ते हैं । मेरा रूप यौवन रहा था न रहा, तुझको क्या ? तरला-रहा या नहीं रहा, यह तो तू आप पानी में अपना मुँह देख कर समझ सकती है।
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