( १८७) सुनाई देने लगी । संघाराम के भीतर के विहारों में भी पूजा के शंख और घंटे की ध्वनि हो रही थी। संघाराम में दल के दल भिक्खु और उपासिकाएँ एकत्र हो रही थीं। उस पुरुष को एक भिक्खु ने पहचाना और पूछा "क्यों (नयसेन , इतनी रात को कहाँ से आ रहे हो ?' उसने कोई उत्तर न देकर पूछा “महास्थविर कहाँ हैं !” भिक्खु ने धीरे से कहा "वज्रतारा के मंदिर में"। वह पुरुष उसे छोड़कर भीड़ में मिल गया। संघाराम के बीचो बीच बुद्धदेव का बड़ा मंदिर था। उसके दक्खिन लोकनाथ का मंदिर था। लोकनाथ विहार के ईशान कोण पर वज्रतारा का मंदिर था। मंदिर के भीतर अष्टधातु के अष्टदल पद्म के ऊपर देवी की एक धातुप्रतिमा थी। कमल के प्रत्येक दल पर धूपघंटा, वज्रघंटा आदि देवियों की मूर्ति थी। बड़ी धूमधाम से इन नवों देवियों की पूजा हो रही थी। एक भिक्खु धूपतारा की आरती कर रहा था। मंदिर के एक कोने में कुशासन पर बैठे महास्थविर बुद्ध- घोष पूजन की विधि बोल रहे थे। मंदिर के द्वार पर उपासक उपासि- काओं की भीड़ खड़ी थी। वह पुरुष द्वार पर मार्ग न पाकर झाँकी के पास गया। वहाँ से उसने देखा कि महास्थविर खिड़की के पास ही बैठे हैं। उस पुरुष ने झाँककर देखा कि पूजन में श्वेत पुष्प ही चढ़ रहे हैं, केवल दो चार लाल देवी-फूल (रक्त जवा ) इधर उधर दिखाई पड़ते हैं। वह खिड़की परसे हटकर फिर मंदिर के द्वार पर आया और उसने एक भक्त से एक देवी फूल लिया । खिड़की के पास जाकर उसने फूल महास्थविर के ऊपर फेंका । महास्थविर ग्रंथ पढ़कर पूजन की विधि बोल रहे थे । पोथी पर लाल फूल पड़ते देख उन्होंने
- विहार = बौद्ध मंदिर ।