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(१८२) और कहाँ? नहीं, नहीं, इस पाटलिपुत्र चित्रा-मेरे पास, नगर में। शशांक-तुम्हारे सिर की सौगंध खाकर कहता हूँ कि वंगदेश के युद्ध से मैं लौटकर तुम्हारे पास पाटलिपुत्र नगर में आऊँगा। चित्रा ने अपने मन की बात हो जाने पर कुमार के गले पर से हाथ हटा लिया और दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े महादेवी के शयनागार की ओर गए। चौथा परिच्छेद संवाद-प्रेरणा दो पहर रात बीत गई है। नगर के तोरणों पर दूसरे पहर का बाजा बज रहा है। राजधानी में बिलकुल सन्नाटा है। एक पतली गली में एक छोटी-सी दूकान पर तेल का एक दिया जल रहा है। दूकान पर बैठी सहुवानी पान चबा रही है और एक पुरुष के साथ धीरे-धीरे गातचीत भी करती है। पुरुष कह रहा है “अब मैं यहाँ और अधिक -रहूँगा, देश को जाऊँगा। बहुत दिन हो गए; अब और विलंब करूँगा तो प्रभु रुष्ट होंगे।” रमणी रूठने का भाव बनाकर कह रही है “पुरुष जाति ऐसी ही होती है। यदि देश का ऐसा ही प्रेम था तो परदेश में आए क्यों ? मुझसे इतनी बातचीत क्यों बढ़ाई ?"