( १८१) चित्रा- युद्ध में मनुष्य मारे जाते हैं, यह तो तुमने कभी कहा नहीं था। मंत्रणा-सभा में आकर कुमार को मृत्यु की बात भूल ही गई थी। जित्रा की बात से फिर उन्हें दुश्चिता ने आ घेरा। वे चित्रा की बात का कोई उत्तर न देकर सोच विचार में डूब गए ! उन्हें चुप देखकर चित्रा ने पुकारा-"कुमार !" शशांक-क्या है चित्रा? चित्रा-कहो कि मैं युद्ध में न जाऊँगा । शशांक-पिता जी की बात भला कैसे टाल सकता हूँ? चित्रा-तुम्हारे पिता क्या तुम्हें जान बूझकर मरने देंगे ? शशांक-वे जान बूझकर मुझे कैसे मरने देंगे ? चित्रा-तो फिर ? शशांक-तो फिर क्या ? चित्रा--तो फिर तुम्हें मरना न होगा ? कुमार हँस पड़े और बोले "मरना भी क्या किसी के हाथ में रहता है? चित्रा ने कुछ सुना नहीं, वह बार बार कहने लगी “अच्छा, कहो कि मैं न मरूँगा" । कुमार ने हँसते हँसते कहा “अच्छा, लो न मरूँगा। चित्रा-यह नहीं, तुम मेरी शपथ खाकर कहो । शशांक-अच्छा तुम्हारी शपथ खाकर कहता हूँ, चित्रा कि मैं वंगदेश के इस युद्ध में न मरूँगा । चित्रा--कहो कि लौटकर आऊँगा । शशांक-कहाँ?
पृष्ठ:शशांक.djvu/१९९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।