तीसरा परिच्छेद दुःसंवाद नए प्रासाद के भीतर एक सुसजित भव में सम्राट महासेनगुप्त, महानायक यशोधवलदेव, महामंत्री हृषीकेश शर्मा, प्रधान पिचारपति नारायण शर्मा, महाबलाध्यक्ष हरिगुप्त, महानायक रामगुप्त प्रभृति प्रधान राजपुरुष बैठे हैं। सब उदास और चिंतामग्न हैं । महाप्रतीहार विनय- सेन चुपचाप भवन के द्वार पर खड़े हैं । वे भी उदास हैं । कुछ दूर पर दंडधर और प्रतीहार चुपचाप खड़े हैं। अंतःपुर से रह रहकर थोड़ा थोड़ा रोने का शब्द भो आता है। कुमार गंगाद्वार से एक दंडधर के साथ अंतःपुर में आए । दुश्चिंता से वे सन्न हो गए थे, रोने का शब्द सुनकर वे और भी दहल उठे। दंडधर से उन्होंने पूछा “सब लोग रोते क्यों है ? क्या हुआ, कुछ कह सकते हो ?" दंडधर बोला "प्रभो ! मैं कुछ भी नहीं जानता। उन्हें दूर ही से देख विनयसेन भीतर जाकर बोले "महाराजा- धिराज ! युवराज आ रहे हैं" । सम्राट हाथ पर सिर रखे रखे ही बोले "भीतर बुलाओ। विनयसेन बाहर निकल कर कुमार को लिए फिर भीतर आए । कुमार पिता के चरणों में प्रणाम करके खड़े रहे । सम्राट के मुँह से कोई शब्द नहीं निकला। यह देख दृषीकेश शर्मा बोले "महाराजाधिराज ! युवराज आए हैं"। सम्राट फिर भी चुप । कुमार उनकी उदासी और मौन का कुछ कारण न समझ भौचक खड़े रहे । अंत में यशोधवलदेव ने सम्राट को संबोधन करके कहा "महाराजा-
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