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युद्ध में जय और पराजय दोनों संभव है यह बात तो आर्य यशोधवल-देव कई बार कह चुके हैं; पर जय और पराजय के साथ मृत्यु की संभावना भी लगी हुई, यह उन्होंने कभी नहीं कहा । मरने पर तो सब बातों का अंत हो जाता है । जीवन की जितनी आशाएँ हैं उन सबकी जीवन के साथ ही इतिश्री हो जाती है। जो लोग युद्ध में जायँगे, हो सकता है कि उनमें से अधिकतर लोग लौटवर न आवें, उनके आत्मीय और घर के प्राणी उन्हें फिर न देखें । युद्ध क्षेत्र में न जाने कितने असहाय अवस्था में प्राण छोड़ेंगे, बहुतों को एल यूँ ट जल भी मरते समय न मिलेगा।

संभव है मुझे भी मरना पड़े । मैं भी घायल होकर गिरूँ और सेनादल मुझे छोड़कर चल दे। मैं तड़पता पड़ा रहूँ और विजयोल्लास में उन्मत्त सहस्रों अश्वारोहियों के घोड़ों की टापों से टकराकर मेरी देह खंड खंड हो जाय, कोई मुझे उठाने के लिए न आवे । फिर तो यह सुंदर पाटलिपुत्र नगर सब दिन के लिए छूट जायगा, बाल्यकाल के क्रीड़ास्थल, बंधु बांधव, इष्ट मित्र देखने को न मिलेंगे। मृत्यु-कितनी भयावनी है ! कुमार की दोनों आँखों में जल आ गया, पर किसी ने देखा नहीं।

एक पहर रात बीते नाव पाटलिपुत्र पहुँची। गंगाद्वार पर पहुँचते पहुँचते दो दंड और बीत गए । गंगाद्वार के चारों ओर बहुत सी नावे लगी थीं । ये सग नावें वंगदेश की चढ़ाई के लिए ही बनी थीं। नावों के जमघट से थोड़ी दूर पर एक नाव लंगर डाले खड़ी थी। उसपर से एक प्रतीहार ने पुकारकर पूछा "किसकी नाव है" ? वसुमित्र ने चिल्ला-कर उत्तर दिया-“साम्राज्य की नौका है"।

प्रतीहार-नाव पर युवराज हैं ?

वसुमित्र-हाँ।