( १७०) चित्रा-जो लोग मरेंगे उन्हें पीड़ा न होगी ? शशांक-होगी। चित्रा -तब फिर उन लोगों को क्यों मारोगे? शशांक-वे सम्राट की प्रजा होकर उनकी आज्ञा नहीं मानते, इसी लिए वे मारे जायेंगे। चित्रा-क्या ऐसे मनुष्य नहीं हैं जो सम्राट की प्रजा नहीं हैं ? शशांक-हैं क्यों नहीं, बहुतसे हैं । चित्रा-तो उन्हें भी समझ लो कि सम्राट की प्रजा नहीं हैं। शशांक-यह नहीं हो सकता चित्रा ! विद्रोही प्रजा का शासन करना राजधर्म है। विद्रोह का दमन न करने से राजा का मान नहीं रह जाता। आर्य यशोधवलदेव कहते हैं कि आत्मसम्मानहीन राजशक्ति कभी स्थिर नहीं रह सकती। चित्रा अब और आगे न चल सकी, मुँह लटकाए बैठी रही उसे देख नरसिंह बोल उठे “अच्छा होता, इन्हीं लोगों के हाथ में राज्य का भार सौंप दिया जाता। हम लोग झंझट से बचते" । सब लोग हँस पड़े, पर चित्रा ने कुछ ध्यान न दिया। वह गहरी चिंता में डूबी हुई थी । वह सोच रही थी कि जिसे इतना बड़ा राज्य है वह राज्य और बढ़ाना क्यों चाहता है ? राज्य लेने में यदि इतने मनुष्यों को मारना पड़ता है तो राज्य लेने की आवश्यकता ही क्या है ? इतनी नरहत्या, इतना रक्तपात करके नया राज्य लेने की आवश्यकता क्या है, यह बात चित्रा की समझ में न आई। अकस्मात् न जाने कौन सी बात सोचकर वह एक बारगी चिल्ला उठी। कुमार ने घबराकर पूछा “क्या हुआ ?" चित्रा की दोनों आँखें डबडबाई हुई थीं । ऊँधे हुए कंठ से वह बोल उठी "तुम जिन लोगों को मारोगे वे भी तुम लोगों को मारेंगे ?"
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