(१६३) उनके सहचर प्रभु के पास प्राण रहते तक जमे रहे, अपने रक्त से कालिंदी की काली धारा उन्होंने लाल कर दी, वे घर लौटकर नहीं आए । प्रतिष्ठान के भीषण दुर्ग के सामने उन्होंने तोरमाण को रोका था। वे स्कंदगुप्त के चिर सहचर थे, इस जीवन में अंत तक साथ देकर परलोक में भी उन्होंने साथ दिया। हूण आते हैं, नागर वीरो ! उठो, कटिबंध कसो, हूण आ रहे हैं।" "वृद्ध सम्राट तरुणी के रूप पर मुग्ध होकर जब अपना मंगल, राज्य का मंगल और प्रजा का मंगल भूल रहे थे उस समय आर्यावर्च की रक्षा किसने की ? ब्राह्मणों और श्रमणों, स्त्रियों और बच्चों, मठों और मंदिरों, नगरों और खेतों को किसने बचाया था, जानते हो ? बालू की भीत उठाकर किसने महासमुद्र की बढ़ती हुई गति को रोका था ? नागर वीरो! जानते हो ? कुमार सदृश पराक्रमी स्कंदगुप्त ने । नागर वीरो उठो, आलस्य छोड़ो, हूण आ रहे हैं । “हूण आ रहे हैं, आत्मरक्षा के लिए कटिवद्ध हो, नहीं तो हूणों की प्रवल धारा में देश डूब जायगा, स्त्री बालक और वृद्ध किसी की रक्षा न होगी। घर का झगड़ा छोड़ो, देवता और ब्राह्मण की रक्षा करो। घर के झगड़े से ही साम्राज्य की यह दशा हुई है। कुमारगुप्त यदि सचेत रहते तो साम्राज्य का ध्वंस न होता। वितस्ता के तट पर यदि सेना रहती तो हूण हार मानकर कुरुवर्ष लौट जाते। कटिबंध कसो, अपना कल्याण सोचो, हूण आ रहे हैं ।" "जिन्होंने शतद्रु के किनारे केवल दस सहस्र सेना लेकर सौ सहस्र को रोका था उनका नाम था स्कंदगुप्त । जिन्होंने केवल एक सहस्र सेना- लेकर शौरसेन दुर्ग में लाखों को शिथिल कर दिया था, उनका नाम स्कंदगुप्त था। कोशल में जिसकी पाँच सहस्र सेना का मार्ग हूण- राज न रोक सके उनका नाम स्कंदगुप्त था 1 नागर वीरो! उठो, अपने नामों को चिरस्मणीय करो, कोष से खड्ग खींचो, हूण आ रहे हैं।" ,
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