(१६२) चल के निकट आ चुका हूँ। अहा ! यौवन की स्मृति क्या मधुर होती है ? युवावस्था के गीत एक बार फिर गाओ। गला अब वैसा नहीं है तो क्या हुआ ? अमरकीचि तो अमर ही है, जब तक स्मृति रहेगी तब तक अमर रहेगी। यदु०-प्रभु, क्या, गाऊँ ? वृद्ध गुनगुनाने लगा। लल्ल के कानों से अब सुनाई नहीं पड़ता था, वह भट्ट के पास सरक आया। सीढ़ी के नीचे से कुमार ने पूछा “यदु दादा ! कौन सा गीत गा रहे हो ?" यशो०-शशांक यहाँ आओ । भट्ट स्कंदगुप्त के गीत गावेंगे। युवराज इतना सुनते ही सीढ़ियों पर लंबे-लंबे डग रखते हुए भट्ट के पास आ बैठे। वृद्ध भट्ट बहुत देर तक गुनगुनाता रहा, फिर उसने गाना आरंभ किया। पहले तो गीत का स्वर अस्फुट रहा, फिर धीमा चलता रहा, देखते-देखते घी पाकर उठी हुई लपट के समान वह एक- बारगी गगनस्पर्श करने लगा। "नागर वीरो! आलस्य छोड़ो, हूण फिर आते हैं। गांधार की पर्वत-माला भेदकर हूणवाहिनी आर्यावर्त्त में फिर घुस आई है। नागर वीरो! व्यसन छोड़ो, वर्म धारण करो, हूण फिर आते हैं अब स्कंदगुप्त नहीं हैं, कुमार सदृश पराक्रमी कुमारगुप्त के कुमार अब नहीं हैं जो तुम्हारी रक्षा करेंगे।" "दूर गंगाजमुना के संगम पर प्रतिष्ठान दुर्ग में सम्राट ने तुम्हारे लिए अपना शरीर त्याग किया जिन्होंने वितस्ता के तट पर, शतद् के पार, मथुरा के रक्तवर्ण दुर्ग कोट पर ब्रह्मावर्च के भीषण युद्ध क्षेत्र में साम्राज्य का मान, ब्राह्मण और देवता का मान, आर्यावर्त्त का मान रखा था अब वे भी नहीं हैं। स्कंदगुप्त की सेना भीरु और कायर नहीं थी, कृतघ्न और विश्वासघातिनी नहीं थी जो लौटकर चली आती । ,
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