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( १६१ ) चार्यों की कुमंत्रणा में पड़कर वंगदेशवासियों ने यशोधवलदेव के भेजे हुए संदेसों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। पूर्व में कामरूप के राजा और पश्चिम में स्थाण्वीश्वर के राजा चकित नेत्रों से प्राचीन साम्राज्य में फिर से इस नई शक्ति के संचार को देख रहे थे। उन्हीं के संकेत से उद्धत वंगवासी राजस्व देना बंद किए हुए थे। इसीसे यशोधवलदेव वंगदेश पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहे थे। संध्या पहले गंगा किनारे घाट की सीढ़ी पर बैठे यशोधवलदेव अनेक बातों की चिंता कर रहे थे, कुछ दूर पर बालू के बीच चित्रा और लतिका घूम रही थीं। शशांक नीचे की सीढ़ी पर खड़े गंगा के जल पर पड़ती हुई डूबते सूर्य की लाल और सुनहरी किरनों की छटा देख रहे थे । घाट पर दो वृद्ध बैठे थे-एक तो लल्ल था, दूसरा यदुभट्ट । यशो- धवल कहने लगे "भट्ट ! बहुत दिनों से तुम्हारा गीत नहीं सुना । युवा- युद्धयात्रा के समय तुम्हारा मांगलिक गीत सुनकर प्रासाद से प्रस्थान करता था। अब तक मेरे कानों में तुम्हारा वह मधुर स्वर गूंज रहा है । भट्ट ! आज पचास वर्ष पर एक बार फिर गीत सुनाओ।" वृद्ध भट्ट का चमड़ा झूल गया था, दाँत गिर गए थे और बाल सन हो गए थे। वह आँखों में आँसू भरकर बोला "प्रभो! भट्टचारणों का अब वह दिन नहीं रहा। साम्राज्य में अब तो भट्टचारण कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। नागरिक अब मंगल गीत भूल गए। अब तो कवि लोग विधु- वदनी नायिकाओं के चंचल नयनों का वर्णन करके उनका मनोरंजन करते हैं । अब युद्ध के गीत उन्हें नहीं अच्छे लगते । जब मेरे गाने के दिन थे तब तो मैं गाने ही नहीं पाता था । अब वे दिन चले गए। न तो शरीर में अब वह बल रहा, न अब वह गला है। अब मैं क्या गाऊँ ?" -भट्ट ! मैं भी तो अपनी युवावस्था कभी का खो चुका हूँ। तरुण कंठ अब मुझे अच्छा न लगेगा। मैं भी अपने जीवन के अस्ता- वस्था में यशो०-