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(१४७) बंधु-तो क्या कोई छिपकर हम लोगों की बातें सुन रहा था ? शक्र०-ऐसा तो नहीं जान पड़ता। बंधु०-वज्राचार्य ! अब तो मुझे बड़ा भय हो रहा है, अब मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। तुम यहाँ रहकर देशानंद की बातों का पता लगाओ, मैं तो अब इसी समय बंगदेश का रास्ता लेता हूँ। यशोधवल इस समय नगर में है, यदि कहीं किसी ने हम लोगों की बातें सुनकर उससे कह दी तो फिर रक्षा का कोई उपाय नहीं । शक्र०-बात तो बहुत कुछ ठीक कहते हो । यहाँ से हम लोगों का चला जाना ही ठीक है। यदि किसी प्रकार यशोधवल को अपने पुत्र की हत्या की बात विदित हो गई तो फिर वह बिना प्रतिशोध लिए कभी नहीं रह सकता । पर तुम्हारे बंगदेश चले जाने से नहीं बनेगा, सब काम बिगड़ जायगा । चलो हम लोग देशानंद को लेकर कपोतिक संघा- राम में चले चलें । वहाँ बुद्धघोष हम लोगों की पूरी रक्षा कर सकेंगे। वंधु०-तो फिर चलो, अभी चलो। शक्र०-मंदिर और संघाराम का कुछ प्रबंध करता चलूँ। बंधु-भगवान् का मंदिर है, वे अपनी व्यवस्था आप कर लेंगे। तुम इसकी चिंता छोड़ो, बस यहाँ से चल ही दो। -देखता हूँ कि तुम डर के मारे बावले हो रहे हो । बंधु०-जिस समय मेरा सिर काट कर नगर तोरण के सामने लोहे की छड़ पर टाँगा जायगा उस समय बुद्ध, धर्म और संघ कोई रक्षा करने नहीं जायगा। शक्र०-अच्छा तो चलो, संघाराम से देशानंद को साथ ले लें। दोनों मंदिर से निकल कर संघाराम की ओर चले। वहाँ जाकर देखा कि भिक्खुओं ने देशानंद का स्त्रीवेश उतार कर उसे एक स्थान पर बिठा रखा है। शक्रसेन ने देशानंद से कहा “आचार्य ! तुम्हें शक्र०-