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( १३० ) दूसरे द्वारपाल ने भिखारी की पगड़ी खोलकर उसके हाथ पैर कस. कर बाँधे । पगड़ी खुलते ही भिखारी की मुंडी खोपड़ी देख दंडधर बोल उठा "अरे! यह तो बौद्ध भिक्खु है ! निश्चय यह कोई गुप्तचर है।" यही कहता हुआ वह अंतःपुर की ओर दौड़ा और थोड़ी देर में विनयसेन को लिए लौट आया । विनयसेन ने आते ही भिक्षुक से पूछा "तू यहाँ क्या करने आया था ?" भिक्षुक-भिक्षा माँगने । विनय-अंतःपुर में भिक्षा कहाँ मिलती है ? भिक्षुक-बाबा ! मैं परदेसी हूँ, नया नया आया हूँ। यहाँ की रीति-नीति नहीं जानता। विनय०-तेरा सिर क्यों मुंड़ा है ? भिक्षुक-मुझे सँबलबाई का रोग है। एक दंडधर ने आकर विनयसेन से कहा “महाराज आप को स्मरण कर रहे हैं ।" विनयसेन ने भिक्षुक को प्रासाद के कारागार में रखने की आज्ञा दी और द्वारपाल से कहा “देखो ! अब मेरी आज्ञा बिना कोई प्रासाद के आँगन तक भी न आने पावे ।” इतना कहकर वे दंडधर के साथ अंतःपुर में गए। अंतःपुर के एक छोटे से घर में एक पलंग के ऊपर सम्राट् महा- सेनगुप्त बैठे हैं । कुछ दूर पर एक-एक आसन लेकर हृषीकेशशर्मा और नारायण शर्मा बैठे हैं। कोठरी के द्वार पर हरिगुप्त खड़े हैं । द्वार से कुछ दूर पर कई दंडधर खड़े हैं । विनयसेन ने आकर हरिगुप्त से पूला "महाराजाधिराज ने मुझे स्मरण किया है ?" हरिगुप्त ने कहा. “हाँ, भीतर जाओ।" विनयसेन ने कक्ष में जाकर अभिवादन किया। सम्राट ने उन्हें देखकर भी कुछ नहीं कहा तब यशोधवल ने सम्राट को संबोधन करके कहा “महाधिराज ! विनयसेन आ गए हैं। अब कुमार