( १२३ ) बंधु०-ठीक है, मैंने किसी से भी नहीं कहा है। अच्छा सुनो, कहता हूँ। बहुत देर तक चुप रहकर बंधुगुप्त बोला "न, वज्राचार्य ! इस समय न कहूँगा। मुझे बहुत डर लग रहा है ।” उसकी बात सुनकर शक्रसेन हँस पड़ा और बोला "बंधु ! मैं देखता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि लुप्त होती जा रही है। मंदिर का द्वार बंद है, मंदिर के भीतर की बात बाहर सुनाई नहीं पड़ सकती, सामने दीपक जल रहा है। तुम अपनी आँख से देख रहे हो कि मंदिर में हमें, तुम्हें और इस देवप्रतिमा को छोड़ और कहीं कोई नहीं है। इतने पर भी तुम्हें इतना भय घेरे है बंधु०-"ठीक है, मैं व्यर्थ डर रहा हूँ। कीर्तिधवल जिस समय वंगदेश में कर संग्रह करने गए थे, उस समय वहाँ के संघ पर बड़ी विपत्ति थी। धवलवंशवाले सबके सब बड़े ही नीतिकुशल और युद्ध- विद्या-विशारद होते आए हैं । बार-बार पराजित होकर जब विद्रोही प्रजा ने संधि की प्रार्थना की तब उसने बिना किसी प्रकार का दंड दिए उसे छोड़ दिया जिससे सब लोग उसके वश में हो गए। मैं उस समय वंग देश में ही था। लाख चेष्टा करने पर भी मैं सद्धर्मियों (बौद्धों) को कीर्णिधवल के विरुद्ध न भड़का सका। उस समय मैंने विचारा कि यशोधवल के पुत्र के वध के अतिरिक्त संघ की कार्यसिद्धि का और कोई उपाय नहीं है वंगदेश का कोई मनुष्य उसपर हाथ छोड़ने को तैयार न हुआ। वह भी सदा रक्षकों से घिरा रहता था, इससे मुझे भी दाँव न मिलता था। बहुत दिनों पीछे मुछे पता लगा कि वह नित्य संध्या को तारादेवी के मंदिर में दर्शन करने जाता है। तब से मैं बर संध्या को उसके पीछे-पीछे जाता, पर उसपर आक्रमण न कर सकता। एक दिन देवयात्रा के समय सद्धर्मियों और ब्राह्मणों के बीच बरा-
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