( १२१) देशा०-संघाराम में निर्जन स्थान भी है। तुम चलो तो। तरला-अच्छा, तुम आगे आगे चलो। देशानंद आगे बढ़ा, तरला कुछ दूर पर उसके पीछे पीछे चली । उस समय संध्या हो गई थी। नगर के बाहर के राजपथ पर कोई आता जाता नहीं दिखाई देता था। देशानंद नित्य के अभ्यास के कारण अँधेरे में ही चलते चलते उस पुराने मंदिर के सामने पहुंच गया ! वस्त्र के एक कोने से कुंजी निकालकर उसने ताला खोला और मंदिर का किवाड़ खोलकर तरला से कहा “भीतर आओ” । तरला बड़े संकट में पड़ी। उसने देखा कि सचमुच निर्जन स्थान है। वह सोचने लगी कि अब क्या करूँ। किस प्रकार अपना कार्य सिद्ध करूँ अथवा कम से कम इसके हाथ से छुटकारा पाऊँ । देशानंद उसे विलंब करते देख अधीर हो उठा और बोला "भीतर निकल आओ, भीतर । बाहर खड़ी खड़ी क्या करती हो ? कहीं कोई देख लेगा तो..." । तरला कोई उपाय न देख सीढ़ी पर चढ़ी और चौखट पर जाकर बैठ गई । देशानंद ने यह देख घबराकर कहा "द्वार पर क्या बैठ गई ? झट से भीतर निकल आओ, मैं किवाड़ बंद करूँगा" । तरला ने धीरे धीरे कहा "मुझे डर लगता है, दीया जलाओ"। -दीया जलाने से सब लोग देखेंगे। तरला-यहाँ है कौन जो देखेगा ? देशानंद अँधेरे में दीया टटोलने लगा। तरला द्वार का कोना पकड़े बाहर खड़ी रही। इतने में कुछ दूर पर मनुष्य का कंठस्वर सुनाई पड़ा। तरला ने उसे सुनते ही धीरे से कहा "बाबा जी, जल्दी आओ। देखो किसी के बोलने का शब्द सुनाई पड़ रहा है"। देशानंद झट द्वार पर आया और सिर निकालकर झाँकने लगा। अँधेरे में दो मनुष्य मंदिर की ओर आते दिखाई पड़े। देशानंद ने और देशा
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