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घर (१२०) से अपने कार्यसाधन के लिए चली । जाते समय वह अपनी मासी से कहती गई कि "मैं सेठ से दो दिन की छुट्टी लेकर आई हूँ। बहुत रात बीते घर लौटूंगी। साथ में अपनी एक सखी को भी लाऊँगी"। निकलकर वह नगर के दक्खिन की ओर चली। दिन ढल चला था, संध्या हुआ ही चाहती थी। चलते हुए राजपथ को छोड़ तरला नगर के छोर पर पहुँची। उस दिन जिस रास्ते से होकर वह पुराने मठ से लौटी थी, वही रास्ता पकड़े धीरे धीरे चली । कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि मार्ग से थोड़ा हटकर एक बावली के किनारे ताड़ के पेड़ों की आड़ में खड़ा कोई मनुष्य चलनेवालों की ओर एकटक देख रहा है। उसे देखते ही तरला तालबन में घुसी और दबे पाँव धीरे धीरे उसके पीछे पहुँच उसने अपने दोनों हाथों से उसकी आँखें ढाँप लीं। वह व्यक्ति तरला का हाथ टटोलकर हँस पड़ा और बोला "तरला ! मैं पहचान गया। ऐसा कोमल हाथ पाटलिपुत्र में और हो किसका सकता है ?" तरला ने हँसकर हाथ हटा लिए और बोली "बाबा जी ! बावली के किनारे खड़े खड़े तुम क्या करते थे ?" देशानंद-तृषित चकोर के समान तुम्हारे मुखचंद्र का आसरा देखता था । अच्छा, अब चलो । तरला-कहाँ चलोगे? देशा०-कुंज में। तरला-बाबा जी ! तुम तो संन्यासी हो। तुम्हारा कुंज कहाँ है ? देशा०-क्यों ? संघाराम में। तरला-यह कैसी बात ? संघाराम क्या कोई निर्जन स्थान है ? अभी उस दिन मैंने कुछ नहीं तो पचीस मुंडी तो देखे होंगे । वे सब तुम्हें पकड़कर तुम्हारे सिर का सनीचर उतारने लगेंगे।