( ११६) से अपना पल्ला छुड़ाकर मैं चली आई। पता तो जान ही चुकी थी; मैं चल पड़ी। नगर के बाहर एक पुराने विहार में वे रखे गए हैं । वे पूरे बंदी तो नहीं हैं, पर किसी प्रकार भाग नहीं सकते। भिक्खु उनपर बराबर दृष्टि रखते हैं। यूथिका-तूने उनसे कुछ कहा ? तरला-न जाने कितनी बातें कहीं। तुमने जो कुछ कहा था वह तो मैंने कहा ही; उसके ऊपर और दस बातें अपनी ओर से बढ़ाकर कह आई हूँ। मैंने कहा “सेठजी ! मैं सागरदत्त की कन्या यूथिका की दूती होकर तुम्हारे पास आई हूँ। तुम्हारे विरह में वह सूखती चली जा रही है, टहनी से टूटकर गिरा चाहती है। और यह भी कहा कि यदि तुम उससे मिलना चाहते हो तो चैत की चाँदमी में वर के वेश में- युवती आँख निकालकर बोली "फिर !" तरला-देखो, तुम्हारा रसज्ञान दिन-दिन कम होता जा रहा है। युवती-तरला ! तेरे पैरों पड़ती हूँ, यह सब रहने दे। और क्या कहा, यह बता। -पहले जाते ही तो मैं ने पूछा कि भैया जी ! क्या इसी प्रकार दिन काटोगे ? उत्तर मिला 'जान तो ऐसा ही पड़ता है।' युवती के दोनों ओठ कुछ फरक उठे। तरला कहने लगी “पहले तो मैंने उन्हें देखकर पहचाना ही नहीं। पहचानती कैसे ? न वे काले भँवर से कुंचित केश हैं, न वह वेश हैं। जिन्हें मैं वसुमित्र कहा करती थी, उनका सिर मुंड़ा हुआ है; अनशन करते-करते चेहरा पीला पड़ गया है। शरीर काषाय वस्त्र से ढका है । नाम तक बदल गया है । अब वसुमित्र कहने से उनका पता नहीं लग सकता । अब उनका नाम है जिनानंद।" युवती तरला की गोद में मुंह छिपा कर सिसक-सिसक रोने लगी। तरला उसे समझा बुझाकर फिर कहने लगी- तरला-
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