चौदहवाँ परिच्छेद चित्रा का अधिकार . प्रासाद से लगा हुआ गंगा के तीर पर एक छोटा सा उद्यान है । सेवा-यत्न के बिना प्रासाद का प्रांगण और उद्यान जंगल सा हो रहा है। घर यह छोटा उद्यान अच्छी दशा में है, इसमें झाड़-झंखाड़ नहीं हैं, सुंदर-सुंदर फूलों के पौधे ही लगे हैं । फुलवारी के चारों ओर जो घेरा है उस पर अनेक प्रकार की लताएँ घनी होकर फैली हैं जिनमें से कुछ तो रंग-बिरंग के फूलों से गुछी हैं, कुछ स्निग्ध श्यामल दलों के भार से झुकी पड़ती हैं । इस चौखू टो पुष्प वाटिका के बीचो-बीच श्वेतमर्मर का एक चबूतरा है जिसके चारों ओर रंग-बिरंग के फूलों से लदे हुए पौधों की कई पंक्तियाँ हैं । सूर्योदय के पूर्व का मंद समीर गंगा के जलकणों से शीतल होकर पेड़ों की पत्तियाँ धीरे-धीरे हिला रहा है । इधर-उधर पेड़ों के नीचे फूल झड़ रहे हैं । अंधकार अभी पूर्ण रूप से नहीं हटा है, उषा के आलोक के भय से प्रासाद के कोनों में और घने पेड़ों की छाया के नीचे छिपा बैठा है। जब तक मार्चड के करोड़ों ज्वलंत किरणवाणों की वर्षा न होगी तब तक वह वहाँ से न हटेगा। पुष्पवाटिका का द्वार खुला जिससे उसके ऊपर छाई हुई माधवी- लता एकबारगी हिल गई। एक बालिका फुलवारी में आई । उसके भौंरे के समान काले केश मंद समीर के झोंक से लहरा रहे थे। उसने देखा कि फुलवारी में कोई नहीं है । इतने में एक और बालिका हँसती हँसती वहाँ आ पहुँची और चिल्लाकर कहने लगी युवराज ! चोर
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