(६६ ) । षष्ठांश ले आए या दुर्द्धर्ष पहाड़ी जातियों को रोके । महाराज ! धवलवंश लुप्त हो गया, यशोधवल सचमुच मर गया, रोहिताश्वगढ़ इस समय खाली पड़ा है। मैं अब यशोधवल नहीं हूँ, यशोधवल का प्रेत हूँ; एक मुट्ठी अन्न के लिए तरस रहा हूँ। मैं अब दुर्ग-स्वामी होने योग्य नहीं रहा।" दूर पर वीरेंद्र सिंह यशोधवलदेव की पौत्री को लिए खड़ा था। यशोधवल ने उसे पास आने का संकेत किया। उसके आने पर वृद्ध ने कहा "लतिका ! महाराजाधिराज को प्रणाम करो।” बालिका ने प्रणाम किया। वीरेंद्र सिंह ने भी सैनिक प्रथा के अनुसार अभिवादन किया । वृद्ध यशोधवल फिर कहने लगे. "महाराजाधिराज! यह लड़की कीर्तिधवल की कन्या है। इसका पिता बंग युद्ध में मारा गया, माता भी छोड़ कर चल बसी । अब मैं इसे पेट भर अन्न तक नहीं दे सकता। सम्राट् अब इसका भार अपने ऊपर लें। सनातन से मृत सैनिकों के पुत्रकलत्र का पालन राजकोष से होता आया है। इसी आसरे पर इस मातृ-पितृ विहीन बालिका के लिए मुट्ठी भर अन्न की भिक्षा माँगने आया हूँ।" अश्रुधारा से सम्राट का शीर्ण गंडस्थल भीग रहा था। यशोधवल की बात पूरी होने के पहले ही वे सिंहासन छोड़ उठ खड़े हुए और बोले “यहॊधवल-वाल्य-सखा उनका गला भर आया, आगे और कोई शब्द न निकला | वे काठ की तरह सिंहासन पर बैठ गए। सभा मंडप में सन्नाटा छा गया था। सब के सब चुपचाप खड़े थे। नारायण शर्मा ने वेदी के सामने जाकर कहा "महाराज ! अब आज और कोई काम असंभव है। आज्ञा हो तो विचार-प्रार्थी नागरिक अपने-अपने घर जायँ ।” सम्राट ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति प्रकट की। यशोषवल- देव कुछ और कहना चाहते थे कि हृषीकेश शर्मा आकर उन्हें वेदी के 7)
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