यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(६२) शशांक नरेंद्रगुप्तदेव उत्तर तोरण पर खड़े हैं और उनके साथ रोहिताश्व के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधवलदेव सम्राट् से मिलने की प्रार्थना कर रहे हैं।" सम्राट महासेनगुप्त आधे लेटे हुए नागरिक का आवेदन सुन रहे थे । सिंहासन की वेदी के नीचे एक करणिका सम्राट का आदेश लिख रहा था । यशोधवलदेव का नाम कान में पड़ते ही चौंककर उठ बैठे। यह देख डर के मारे करणिक के हाथ से लेखनी और ताड़पत्र छूट पड़ा, मसिपात्र भी उलट गया । . महाधर्माध्यक्ष नारायणशर्मा ने उसकी ओर त्योरी चढ़ाई । बेचारा करणिक सन्न हो गया। सम्राट ने ऊँचे स्वर से पूछा "क्या कहा ?" "परमेश्वर परम वैष्णव-" "यह तो सुना, उनके साथ कौन आता है ?" "रोहिताश्वगढ़ के महानायक युवराजभट्टारकपादीय यशोधवलदेव ।" “यशोधवलदेव !" दंडधर ने सिर हिलाकर 'हाँ' किया। महामंत्री ने नारायण शर्मा से पूछा “महाधर्माध्यक्ष जी, कौन आया है ? महाराज इतने आतुर क्यों हुए ?' नारायणशर्मा गरदन ऊँची किए बाचचीत सुन रहे थे । उन्होंने महामंत्री की बात न सुनी । सम्राट उस समय कह रहे थे "यह कभी हो नहीं सकता। रोहिताश्व के यशोधवलदेव अब कहाँ हैं ? रामगुप्त जाकर देखो तो। जान पड़ता है किसी धूर्त ने रोहिताश्वगढ़ पर अधिकर कर लिया ।" रामगुप्त आसन से उठ उचर तोरण की ओर चले । दंडधर उनके पीछे पीछे चला। वे थोड़ी दूर भी नहीं गए थे कि युवराज के कंधे पर हाथ रखे वृद्ध महानायक धीरे धीरे आते दिखाई + करणिक = लेखक, मुंशी।