राजपुरुष बैठे हैं । अलिंद में अभिजात संप्रदाय के लिए जो सुखासन हैं वे खाली हैं । उत्सव आदि के दिनों में ही उस वर्ग के लोग राज- सभा में दिखाई पड़ते हैं । सभामंडप के चारों द्वारों पर सेनानायक पहरों पर थे। उत्तर द्वार के प्रतीहार ने विस्मित होकर देखा कि युवराज शशांक के कंधे का सहारा लिए एक वृद्ध योद्धा नदी तट से सभामंडप की ओर आ रहा है। उसका दहना हाथ पकड़े आठ नौ बरस की एक लड़की और पीछे-पीछे एक युवा योद्धा आ रहा है। प्रतीहार के विस्मय का कारण था। बात यह थी कि नगर के साधारण लोग नदी के मार्ग से प्रासाद के भीतर नहीं आ सकते थे । उच्चपदस्थ कर्मचारियों और राजवंश के लोगों को छोड़ और कोई गंगाद्वार में नहीं प्रवेश करने पाता था। गंगाद्वार से होकर आने का जिन्हें अधिकार प्राप्त था, वे कभी अकेले और पैदल नहीं आते थे। वे बड़े समारोह के साथ हाथी, घोड़े या पालकी पर बैठ कर और इधर-उधर शरीर रक्षक सेना के साथ आते थे। पर उनमें से भी कभी कोई वात्सल्य भाव से भी युवराज के ऊपर हाथ नहीं रख सकता था। वृद्ध सैनिक जो बातें कहते आ रहे थे युवराज उन्हें बड़े ध्यान से सुनते आ रहे थे। प्रतीहार और उनके नायक बड़े आश्चर्य से उनकी ओर देख रहे हैं, इसका उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं था । वृद्ध कह रहे थे "कामरूप से लौटने पर इस पथ से होकर मैं प्रासाद में गया था । अब मेरा वह दिन नहीं है । सुस्थितवर्मा को सीकड़ में बाँध कर मैं लाया था। उन्हें देख कर उल्लास से उछल कर नागरिक जय-ध्वनि करते थे। तुम्हारे पिता में थे। वे पालकी पर आते थे । युवराज! युद्ध घायल हुए
- सुस्थितवर्मा-कामरूप के राजा। महासेनगुप्त ने उन्हें ब्रह्मपुत्र के किनारे
पराजित किया था । वे भास्करवा के पिता थे।